हमारा तथाकथित सभ्य समाज किसी भी गलती पर हर अंगुली औरत की तरफ ही उठाता है. .......चाहे वो चारित्रिक हो या वस्त्र सम्बन्धी...या विचार को लेकर.या स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई....क्यूंकि पुरुष कोई गलती नहीं करता और हर स्त्री गलतियों का पुतला है.....और हरपुरुष दूध का धुला........ और घर की अन्य सभी तथाकथित औरते कुलीन |
क्या त्याज्य स्त्री ही कुलटा और कुलक्षिणी होती है........मसलन सीता का पुन: वनवास उसी का हिस्सा था.......और जिम्मेदारी भी औरत पर....... तलाक के समय प्रयास होता है बच्चे माँ के ही साथ रहे..... बस एक सवाल पूछू भगवान बने पुरुष पति से ...क्या उस बच्चे को माँ के घर से लाई थी..... स्त्री एकाकी होकर यदि बच्चे का पालन कर सकती है तो पुरुष क्यूँ नहीं क्यूँ न वंशबेल को उसकी जड़ के साथ छोडकर निकले स्त्री स्वयम को बांधकर पुरुष को आजाद क्यूँ करे ..... जिससे वो एक और कुँवारी कन्या से ब्याह कर सके ?...... क्या उसे जीवन यापन का उतना हिस्सा मिलता है जिसकी हकदार है वो.... क्या उत्पन्न परिस्थितियों के लिए केवल स्त्री ही जिम्मेदार होती है...... और यदि स्त्री इतनी सक्षम है...तो..समाज उसे बंधक बनाकर पर्दे में क्यूँ रखता है...क्यूँ डरता है स्त्री को पूर्ण इकाई मानने से....कमतर क्यूँ आंकता है ,,उसे गृहस्थ में बराबर सहयोग न करके भी सामाजिक दिखावा क्यूँ करता है ....सच बोलना अपनी अर्धांग्नी को सही मायने में अर्धांगनी कब कब समझा ? .....चलो यही पूछ लो खुद से क्या कभी सच्चे दोस्त की तरह सुना और समझा ? ......... ईमान से झांकना खुद में
आइना बनने की चाहत में रंग लिया इक-छोर
खुद-पर नजर जाती तो जाती-क्यूँकर भला ---- विजयलक्ष्मी
क्या त्याज्य स्त्री ही कुलटा और कुलक्षिणी होती है........मसलन सीता का पुन: वनवास उसी का हिस्सा था.......और जिम्मेदारी भी औरत पर....... तलाक के समय प्रयास होता है बच्चे माँ के ही साथ रहे..... बस एक सवाल पूछू भगवान बने पुरुष पति से ...क्या उस बच्चे को माँ के घर से लाई थी..... स्त्री एकाकी होकर यदि बच्चे का पालन कर सकती है तो पुरुष क्यूँ नहीं क्यूँ न वंशबेल को उसकी जड़ के साथ छोडकर निकले स्त्री स्वयम को बांधकर पुरुष को आजाद क्यूँ करे ..... जिससे वो एक और कुँवारी कन्या से ब्याह कर सके ?...... क्या उसे जीवन यापन का उतना हिस्सा मिलता है जिसकी हकदार है वो.... क्या उत्पन्न परिस्थितियों के लिए केवल स्त्री ही जिम्मेदार होती है...... और यदि स्त्री इतनी सक्षम है...तो..समाज उसे बंधक बनाकर पर्दे में क्यूँ रखता है...क्यूँ डरता है स्त्री को पूर्ण इकाई मानने से....कमतर क्यूँ आंकता है ,,उसे गृहस्थ में बराबर सहयोग न करके भी सामाजिक दिखावा क्यूँ करता है ....सच बोलना अपनी अर्धांग्नी को सही मायने में अर्धांगनी कब कब समझा ? .....चलो यही पूछ लो खुद से क्या कभी सच्चे दोस्त की तरह सुना और समझा ? ......... ईमान से झांकना खुद में
आइना बनने की चाहत में रंग लिया इक-छोर
खुद-पर नजर जाती तो जाती-क्यूँकर भला ---- विजयलक्ष्मी
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