Friday 22 April 2016

" पृथ्वी दिवस की मंगलकामनायें || "


जिन्दगी की राह में घनी छाया बन मिले थे तुम ,,
तुम्हे उतावलापन बहुत ,,समय को पीछे छोड़ने की चाह ,,
मुझे तपती कड़ी धूप में छोड़ बढ़ चले तुम ..
ढलती साँझ को जब सूरज थककर जा सोयेगा समन्दर के आंचल से
गगन के सितारों से झांकते से तुम..हाँ ,,तुम ही हो..
स्याह श्यामल रात के अँधेरे में जुगनू की चमक को राह दिखाते ,,
चांदनी की चीख सुनी तुमने ...
कटते हुए वृक्षों में रिसते श्वेत लहू को देखो ...
मेरी आंख का आंसू ही है वो ...टहनियों और तनो से गिरता जल नहीं
किरकिरी बनकर चुभ रही ...वो स्वप्निल रात ,,
जैसे छुरी अटक गयी हो अंतड़ियों के बीच ..
क्या ही अच्छा था उखाड़ देते मुझे भी उस वृक्ष की तरह ..जो तुमने खलिहान से कटवा दिया था..
क्यूंकि उसका मुंडेर पर खड़ा होना तुम्हे चिढाता सा लगता था..
चीख सुनो ..


उसी मृग के छौने सरीखी सुनेगी जिसकी छाती में दागी थी गोली तुमने महज एक शौक की खातिर,,
पी जाते हो हक उस बछड़े का जिसने खड़े होकर माँ के थन को छुआ भर था ,,
इन्सान कहते हो खुद को ... लाज भी नहीं आती ,,
बम बंदूक उगलती हैं आग ..और बनते हो मानवाधिकार के रखवाले,,
शर्म और तहजीब ... वो गिरवी पड़ी हैहकीमों के तलवो तले ..
स्वाभिमान का मान मर्दन हो रहा है ... दामिनी की तरह ,,
न्यायपालिका अर्दली है दौलत वालों के दरवाजे पर
उसपर असहिष्णुता की पुकार ...
सच में ये धरती ..ये अम्बर ..हवा और ये पानी ..
सब असहिष्णु हो गये हैं ..निगल रहे है धरती का जीवन 

----- विजयलक्ष्मी


सोच रहे हैं बैठे बैठे धरती को बचायेंगे ,,
लेकिन धरती से पहले इन्सान ही मिट जायेंगे 
और काटो वृक्षों का ,,वनसम्पदा को नष्ट करो ,,
आओ इंसानों पहले प्रकृति को नष्ट करो ..
आग लगाओ जंगलात को ,,पर्यावरण को पथभ्रष्ट करो
निज स्वार्थ के चूल्हे पर रोटी सेको मतलब की
प्रदुषण प्रसारण अधिकार तुम्हारा ,, हवा बिगाड़ो नस्लों की
क्या करेगा अग्रिम वंश भला शुद्ध पानी ,,
उसको चखना होगा मजा तुम्हारी नादानी का ,,
अभी तो शुरुआत है ,, सूखे की बरसात है..
बादल रूठे ,,पवन का गर्म मिजाज है ,,
कौन शान्त धरती अम्बर में ... मनुष्य से नाराज हैं ,,
तपती धरती को देख लगा,, मौसम का गुंडाराज है ,,
नहीं समझे गर प्रकृति का मोल ...
अभी बिका है बिजली पानी ... अब बिकनी हवा भी तौल ||
------ विजयलक्ष्मी



पृथ्वी दिवस मनाने की नौबत 

क्यूँ आई ...
कभी गौर फरमाइए ..
उसी ढर्रेपर चलकर 
पृथ्वी दिवस मनाइए ...... 
नहीं तो ..
सबकुछ भूलकर 
जिन्दगी खोइए||
चिंता किस बात की ???
 ----- विजयलक्ष्मी







" पर्यावरण सुधरे,,

धरती का कम हो तापमान
तभी सम्भव है बचाना धरती को
अन्यथा ,,
तय है जीवन का होना काम तमाम 
आज अकाल फिर होगी वर्षावृष्टि 
तपती है धरती चेतते नहीं धरती के लाल
हर कोई चाहे एसी बंगला गाडी.....
पर्यावरण और धरती पर बजा रहे हैं गाल,,
एक संगोष्ठी ,,कुछ खट्टी मीठी ,, कडवी तीखी बनेगी उसमे बात
कौन करेगा उद्धार धरा का ... देखने वाली बात ,,
बैंक बैलेंस करो तुम जितना... उससे क्या होगा ..
धरती से ऊपर उठकर जीवन किसका बचेगा
जीवन की झंकार चाहिए गर ..
हरित बाना पहनाओ ,,
घर घर बाग़-बगीचे और पुष्प पौध लगाओ
जंगल को रहने दो जिन्दा ..मत इतिहास बनाओ ..
जंगलवासी को घर दो .. उनके घर मत जलाओ ,,
हर कोना उगलेगा आग गर...
कैसे रहोगे जिन्दा ,,
कोई बचेगा गर ...तभी तो हो सकोगे करनी पर शर्मिंदा ,,,
नग्न धरा को देख किसी को लाज नहीं आती ..
उसपर भी तौहमद धरती पर ठंडी नहीं हो पाती ,,
कैसे कपूत जन्मे धरती बम बंदूक चलाते ,,
कुछ भ्रष्टाचार का रोना रोते ,,,खुद होकर बेगाना 
पृथ्वी दिवस मनाने से पृथ्वी गर बचती है 
चलो शोर मचाये ढोल बचाए जिन्दगी गर बचती है 
पलीता मत लगाओ धरती को कथनी से नहीं करनी से बचाओ
सरकार की छोडो उठो कोई तो पेड़ लगाओ ",,
------ विजयलक्ष्मी

1 comment:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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