" माँ..
भीग जाती है कोर पलक की
ठहर जाती ठौर फलक की
और ..
बह उठता एक अहसास गहराकर
जैसे ठहरे से समन्दर में उठती है सुनामी
सब बहाना चाहती है ...
साहिल से फलक के दुसरे छोर तक की दुनिया
जब माँ रूठती है जैसे दुनिया छूटती हैं
वो दर्द लहरता है ..
निशब्द मौन गहरता है ...
चलती है अहसास की आंधी ..
जब माँ मौन देखती है ..झांककर सितारों की दुनिया से
एकाकी मन विह्वल
हर पल बेकल
जैसे पराये हो गये हो हम खुद से
माँ...
मौन तुम्हारा ,,
सहारा बना सहरा ..
जिसमे यादों के पुष्प मुखरित है
और रेतीले टीले जैसे तपता हुआ सूरज
विचार बनकर जिन्दा हुआ मुझमे
माँ ...
तुम बिन दुनिया ही जैसे मुहं मोड़ गयी
जलती राहों पर छोड़ गयी ..
ममता भरी नजर तुम्हारी
और जीवन सफर मेरा
और फिर वही ... निश्तब्ध्ता ..
मुझमे तुम ही हो ...
क्या बतलाऊं किसी को क्यूँकर भला
माँ जीवन शक्ति देती है
माँ भावबोध मुक्ति देती है
माँ से बड़ी पूजा कौन ..
माँ के सम्मुख ईश भी मौन
माँ जीवन का विश्वास है ,
माँ जीवन का अहसास है,
भगवान याद आये भी कैसे ,,
खुशकिस्मत हैं वो
ईश प्रारूप माँ जिनके पास है .| " --- विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment