"मुसाफिर हूँ, तलाश मंजिल की क्या करूं ,
चल रही साँस है आस किसकी करूं.
बजते स्वरों से कान दुश्मनों के खड़े हुए ,
नेता हुए परेशान, बताओ क्या करूं .
रंगत ए वतन बहुत नाजुक है आजकल
शिकायत भी अब किसकी क्या करूं .
कानून का खौफ भी सबको नहीं होता ,
बता ,जिन्दा से जमीर का क्या करूं.
बेच रहा है गाय धन के हिसाब पर जो ,
उस मौकापरस्त का बोलो क्या करूं .
कलदार को माईबाप बना बैठा इंसान ,
भूखा मरते किसान का क्या करूं.
कलम मानती नहीं चलने को परेशान .
सहमी सी आवाज का क्या करूं.
सुलझाने के वास्ते उठाते है कदम बार बार
उनमे ही उलझ जाऊं तो क्या करूं ."- विजयलक्ष्मी
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