Monday, 7 January 2013

अहम् का मगर कोई अंत नहीं होता



बहुत मतलबी हों गया इंसान ,
जब देखिये जरूरत से शैतान या हैवान ,
हर एक में है जिन्दा राम के साथ रावण ,
झांकते नहीं खुद में हर गलती बस दुसरे के नाम ,
ख्वाहिशों का अम्बार लगा है ,
रिश्तों को निभाना सबको भार लगा है ,
हर किसी को अपनी आजादी लगती प्यारी ,
गर लगे कोई बंधन तो बसर करते न्यारी ,
किसकी करें बात क्या पुरुष और क्या नारी ,
समझते नहीं है नहीं दोनों का गुजारा ,
हर एक रिश्ता होता है खुद में प्यारा ,
झुकने से कोई भी छोटा नहीं होता ,
अहं का मगर कोई अंत नहीं होता ,
बस टूटते है रिश्ते और रिस्ता है दर्द .
-- विजयलक्ष्मी

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