Thursday, 27 August 2015

" आँख में आंसूं हुए तो क्या ..हौसले बुलंद हैं,"


" शब्दों को रहने दो ,

शब्दों में कुछ नहीं,
छल कर सकते हैं
गर जीना है जिन्दगी की तरह ,
अहसास को जियो "

---  विजयलक्ष्मी




" जिसकी नजर में है उसीसे नजर छिपाए भी तो भला कैसे,

झूठ है सच गुनाह या पाकीजगी बताये भी तो भला कैसे ,"

---- विजयलक्ष्मी

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" आँख में आंसूं हुए तो क्या ..हौसले बुलंद हैं,
मौत का खौफ क्यूँकर,जिन्दगी रजामंद है
"
------ विजयलक्ष्मी

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" भावनाए है इसीलिए जिन्दा है हंसते हैं रोते हैं ...
भाव रहित तो शायद ...बस पत्थर ही होते हैं "
 ---- विजयलक्ष्मी



" चाँद की पतवार लिए सपनों की नाव समन्दर में जा गिरी ,
आँधियां भी साजिशन लहरों की अठखेलियों से जा मिली
."
---- विजयलक्ष्मी



Wednesday, 26 August 2015

" आओ ..लिए तिरंगा हाथ, मिलकर साथ " जयहिंद " अलख लगाते हैं "




" आओं विचारे राष्ट्र को पुकारे ,
क्या साथ दोगे ...?
मेरा नहीं वतन का
कैसी विडम्बना ...जिन्हें वन्देमातरम से परहेज,
जिन्हें जय भारत कहना अखरता है
जिन्हें धरती का सीना दुश्मन सा लगता है,
जो फहराते दुश्मन का झंडा ,,,
अलगाववाद ही जिनका फंडा ,
जो बसों को आग लगाते है,
देश को झोंक युद्ध में गाते हैं गीत
कोई तो बताये कैसी है राष्ट्र से प्रीत
कैसे गूंजेगा मीठा गान ,,,
सुरों का कैसे हो मिलान ..
पड़ा है अक्ल पर वितान ..किरण सूरज कैसे बिखरेगी ,,
अन्तस् में कैसे रौशनी निखरेगी..
सच कहना क्या सुनकर ऐसा राग नियत नहीं बदलेगी ,
विश्वास क्यूँ डोलता है..धर्म वतन से आगे क्यूँ बोलता है,,
जिन्हें वतन की आन नहीं भाती ,शान नहीं लुभाती ..
उन संग निभानी मुहब्बत की रीत नहीं आती ,,,
जिसे वतन की जीत नहीं प्यारी ..उनकी हमे कोई चीज नहीं प्यारी..
जिन्हें वतन परस्ती भाती है ,,
बिन देशराग के जिन्हें नींद नहीं आती है ..
उनकी यादों से नई दुनिया घड़ जाते हैं ...
वतनपरस्ती के सम्मुख शीश झुकाते हैं ,,
आओ ..लिए तिरंगा हाथ, मिलकर साथ " जयहिंद " अलख लगाते हैं
"----- विजयलक्ष्मी



आतंकवादी मतलब शिकार ,, भून दो ।बिल्कुल वैसे ही जैसे सलमान ने काला हिरन मारा था ।जिंदा बचा तो फिर आएगा पकड़ा गया तो जनता की दौलत वकील की फीस न्यायालय का समय कितनी बरबादी होती है...बचाने के लिए ढकोसलेबाजी ,,जो मानवाधिकारी इंसानों की हत्या पर चुप्पी बांधे हो उनकी आवाज भी हलक को छेदकर बाहर आने लगती है...हाँ कोई धर्म नहीं होता आतंकवादी का फिर धार्मिक उन्माद क्यूँ ...इसी जहर के फैलने से पहले सीधे निशाना...और...खेल खत्म ...इंसानियत जिन्दा रहे ...कोई भी धर्म लड़ना नहीं सिखाता ..जो लड़ना सिखाता है वो धर्म नहीं हो सकता ...स्वरक्षा आवश्यक है ...अत: अहिंसा परमोधर्म एक सीमा तक सीमा लांघने वाले को सबक जरूरी है न..कुछ गलत तो नहीं है न . " ----- एक नागरिक

Saturday, 15 August 2015

" कविता साँस बन जाये अगर ...,"

" कविता एक अनुभूति है एक अहसास है , कविता दिल की प्यास है .. एक पूजा है मेरा खुदा है , कविता खुद में सबसे जुदा है , कविता साँस बन जाये अगर ..., हर पल कविता लिखी जाए अगर .. कैसे रंग बदलती कैसे मगर .. सृजन जीवन का हिस्सा है , हर विनाश से अगला किस्सा है , उसे वक्त के लिए छोड़ दे , कलम के दीवाने लिखना कैसे छोड़ दे , ये बपौती नहीं किसी की , हों सकता है कि जिंदगी हों किसी की " --- विजयलक्ष्मी


Friday, 14 August 2015

" नहीं ये देश नहीं ..असली देश तो ....."





















" देश एसा देश वैसा ...बहुत सुना मैंने ,देश कैसा 
वो चीखते नेता जन्तर मन्तर पर बैठे धरने पर ,
माइक पर लगाते गुहार ,, करते दोषारोपण ,,,
लम्बी सी कतार छुटभैये चापलूसों की देते भाषण 
क्या यही है देश ...?
नहीं ये देश नहीं ..असली देश तो
जलती धूप में खेत में तपता है ..
बोता है बीज सींचता है खेत ..
जोहता है बाट बादलों की ..नजर टिकाये ..
ढूंढता है वो दिशा.. जिधर से कौन्धेगी बिजली
पड़ेगी फुहार और हरियायेंगे खेत ..अन्यथा
देश कभी सूखे कभी बाढ़ को झेलता है
कर्ज और निराशा में डूबा लाचार किसान की आत्महत्या की आखिरी हिचकी लेता है
उसके पीछे जब मासूम आँखों में जो रोता है ..
वही है देश ..
ऊँचे बंगलों में बड़ी लम्बी गाड़ियों में नहीं है ..
गरीबी की झुग्गी में दो निवालों को जो तरसता है ,,
पैरों में पड़ी टूटी चप्पल को कपड़े से गांठ बांधकर कर चिहुकता सा
जो चलता है वही है देश ,
लाल बत्ती संग हूटर लगाकर विदेशी ब्रांड पहने काले चश्मे में जो घूमते है वो नहीं
देश... ऊँची दुकान पर जाने हिम्मत भी नहीं करता ..
उसके लिए चकाचौंध करती सडक पर जीविका को खड़ी होती है रिक्शा
वो कभी रिटायर ही नहीं होता.. लड़ता है अंतिम साँस तक रोटी की लड़ाई .
अंग्रेजी में गिटपिट बोलता है जो वो मेरा देश कहाँ ?
वो आंगन बाड़ी में बड़ा होना सीखता है ,,
नहीं मिलते क्रेच या प्ले स्कूल
किताबो की कमी को को ही नहीं रोता है पढाने वालों के ज्ञान और गिनती को भी रोता है देश
स्कूल के सीलन भरे जर्जर कमरों में बैठता है जिनका न टिकने का भरोसा न गिरने का ..
देश सिसकता है बलात्कार की भुक्तभोगी हर इक निर्भया की कांपती आत्मा में ..
मोमबत्ती मार्च नहीं निकलता देश निरीह सा ठगा सा दीखता है देश
देश तो ठेलों पर निहारता है भूखी आँखों से
बीनता है सामान कूड़े के ढेर से
पिटता है भूख में लगे चोरी के इल्जाम पर
तुम क्या जानते हो देश के विषय में ..
जानते हो जहाँ शौच के लिए भी सूरज के धुंधला होने का इंतजार ठहरा है
जानते हो जहाँ जवान बेटे की किस्मत पर बेरोजगारी का पहरा है
कम्पनी में मालिक के ताला लगाने के बाद तीसरे दिन जब भीख के लिए उठते हैं हाथ ..
बोतलों होटलों एय्याशियों में नहीं रहता देश ..
दो जून की रोटी के दुधमुहे बच्चे को छोड़ चकमक कपड़ो में गहरी लिपस्टिक में भीतर से मुरझाई बाहर से महकती हुई
इंतजार ..जो सामान नहीं खुद की देह का करती है सौदा ..
" चल ...बैठ ..आजा गाडी में "सुनकर चल देती है अनजान के साथ और रेगने देती है कीड़े को देह पर चंद रुपयों के बदले
तब सर धुनता है जो ,,वही है देश ,,
पिज्जा बर्गर नहीं भूख से उठते दर्द में रहता है देश
जिसके लिए कानून है पुलिस है न्यायालय है द्रोणाचार्य है सत्ता है भाषण है ..
लेकिन यदि नहीं है तो ...
चैन ..शांति .. शिक्षा ..रोजगार ..रोटी ..सुरक्षा और न्याय
" --- विजयलक्ष्मी

Monday, 3 August 2015

थाने बने कत्लगाह अजब तस्वीर है |

थाने बने कत्लगाह अजब तस्वीर है |
जल रही जिन्दा देह ,कैसी तकदीर है ||

है रसूखदार दारोगा ,जेब से अमीर है |
सत्ताधारी भगवान औरत ही फकीर है ||

बलात्कार होना ,,कौन बड़ी तहरीर है |
नेता का जीजा ठहरा बहुत बेनजीर है ||

नजर से लिखता जनता की तकदीर है|
मिडिया में घटना पर होनी तकरीर है ||

एंकर से सम्पादक बोला बड़ी शरीर है |
सौ झूठ पकड़े , सच की एक लकीर है || ---- विजयलक्ष्मी