सुना है.. न्याय बिक रहा है ...
सुना है ..अपने ही नाम की दुकानों पर ,
यहाँ तो सब कुछ बिक रहा है...
सुना है ..दलाल रहते है यहाँ ईमान के ,
सुना है ..कसम खिलाते है झूठी गीता ही ,
सुना है.. नोट के बदले वोट और उसी पैसे में मौत खरीदते है ,
सुना है ..ये दुश्मनी निभाते हैं आखिरी साँस तक ,
सुना है ..ईमान की कसम खिलाने वाले बहुत पक्के होते हैं ईमान के ,उसे ही बेचकर रोटी खाते हैं
सुना है.. इनका ईमान भी बिकता है चंद पैसे की दरकार में
सुना है.. ये मीलों चलकर भी खरीदते है इंसानी परिंदों की जान
सुना है.. न्याय इनकी जेब का एक मोहरा भर है
सुना है ..ये स्याह को सफेद और सफेद को स्याह बनाने का हुनर जानते है
सुना है ..ये पैसे को ही अपना भगवान मानते हैं ,
सुना है ..संविधान नाचता है इनकी उँगलियों पर ,
सुना है ..ये आम इन्सान की जिन्दगी लेकर खास को दे देते है उधार ,
सुना है ..इनका हर रंग झूठ से ही शुरू होकर मौत तक बसर करता है
सुना है ..इनकी गिरफ्त में आया तो खुदा भी गलती कबूल करता हैं
सुना है ..इनके खंजर खून करके भी पाकसाफ रहते हैं
सुना है ..ये तो पत्रकारों से भी ज्यादा बिकाऊ होते हैं
सुना है.. यमपुरी का ठेका उन्ही को मिलता है ,
सुना है.. जितने झूठ गिनकर सच बनाते है ..उतने बड़े औ सच्चे इंसान कहलाते हैं
सुना है ..खुद को बेचकर न्याय खरीदने का हुनर जानते हैं
सुना है ..इनके जाल में आजाद परिंदे भी फडफडा कर दम तोड़ जाते हैं
सुना है ..सबूत पैदा करना इनका हुनर है अनोखा ..
सुना है.. कानून का प्रसव इनके इशारों का मोहताज है
सुना है ..एक अदना वकील भी न्यायधीश का ताज है ,
सुना है ..शक का कीड़ा लिए घूमते हैं ,
सुना है ,,बातें बनाना ,जिन्दों को मुर्दा और मुर्दों को जिन्दा बनाने का हुनर रखते है ,
सुना है ..देह रूह वतन इन्सान जज्बात के ऊँचे व्यापारी होते हैं ,
सुना है ..कानून के घर में कानूनी कपड़े कानूनी हिसाब किताब के साथ कानून को धता बताते हैं ,-- विजयलक्ष्मी
Tuesday, 23 April 2013
Sunday, 14 April 2013
हो पत्थर ही ..!
मुस्कुराये क्यूँ ?
हंसना हुआ मना
हंस दिए न !
जख्म खाए है
हुयी रुसवाई है
मुस्कुरा तो दो !
आंसू निकले
बही धारा गम की
लब मुस्काए !
रीता बर्तन
रीता सा मन हुआ
भाव बेभाव !
चाह कितना
पूजा कितना तुम्हे
हो पत्थर ही .- विजयलक्ष्मी
हंसना हुआ मना
हंस दिए न !
जख्म खाए है
हुयी रुसवाई है
मुस्कुरा तो दो !
आंसू निकले
बही धारा गम की
लब मुस्काए !
रीता बर्तन
रीता सा मन हुआ
भाव बेभाव !
चाह कितना
पूजा कितना तुम्हे
हो पत्थर ही .- विजयलक्ष्मी
ख्वाब न खो जाये ..
अहसास ए रूह कयामत का आगाज देती है ,
कदम रुक जाते है चलते हुए जब आवाज देती है ..विजयलक्ष्मी
अहसास ए रूह रंग ए फिजा बदल जाती है
नयन से छलके आंसू में तस्वीर बन जाती है ..विजयलक्ष्मी
ये वक्त भी चल बसेगा रह गुजर से उनकी ,
उस रह गुजर का क्या हो जो गुजर न सकी ...विजयलक्ष्मी
वो मंजर जो बसे है नयनपट में ,
नयन कोर पर सिमट रहे है ढलक कर ..विजयलक्ष्मी
चलो पंछियों को कहे कोई और राग छेड़े ,
ये गीत अब वक्त को गुनगनाने दो मुहब्बत का ..विजयलक्ष्मी
सहरा न हो जाये जमी दरक न जाए फसाने ,
आओ समेट ले ख्वाब न खो जाये छलक कर ..विजयलक्ष्मी
कदम रुक जाते है चलते हुए जब आवाज देती है ..विजयलक्ष्मी
अहसास ए रूह रंग ए फिजा बदल जाती है
नयन से छलके आंसू में तस्वीर बन जाती है ..विजयलक्ष्मी
ये वक्त भी चल बसेगा रह गुजर से उनकी ,
उस रह गुजर का क्या हो जो गुजर न सकी ...विजयलक्ष्मी
वो मंजर जो बसे है नयनपट में ,
नयन कोर पर सिमट रहे है ढलक कर ..विजयलक्ष्मी
चलो पंछियों को कहे कोई और राग छेड़े ,
ये गीत अब वक्त को गुनगनाने दो मुहब्बत का ..विजयलक्ष्मी
सहरा न हो जाये जमी दरक न जाए फसाने ,
आओ समेट ले ख्वाब न खो जाये छलक कर ..विजयलक्ष्मी
रंग ए वजूद ..
रंग ए वजूद मेरा अब बदलना कैसा ,
देश पर मरना मिटना उनका भला कैसा
खा रहे है जो नोच नोच कर वतन को ,
उनसे कोई उम्मीद भी रखना भला कैसा ..विजयलक्ष्मी
देश पर मरना मिटना उनका भला कैसा
खा रहे है जो नोच नोच कर वतन को ,
उनसे कोई उम्मीद भी रखना भला कैसा ..विजयलक्ष्मी
Sunday, 7 April 2013
हम नत मस्तक खड़े मिलेंगे ,,
युद्ध ..विध्वंश ..
अंत संस्कृतियों का या
सृजन की पहली सीढी..
बाहर कोकिला की आवाज सुन रही है ..
साथ एक और पंछी चल दिया ..
वही से कौवे ने भी कांव कांव् सुना दी ..
बाहर देखने पर कोई नहीं दिखा ..
फिर भी रस माधुरी सी घुल गयी हृदय के कोने पर ..
पंछियों की कलरव से ..
कलरव ..जी हाँ ..बहुत मीठा सा शब्द है ..
क्या उसमे कौवा शामिल नहीं ..
संस्कृतियाँ ..उनका मेल ..कुछ जुड़ता है कुछ टूटता है ..
सृजन और विनाश चलता है साथ ..
अधूरे है एक दुसरे के बिना या ...
पूरक है ...ये सत्य प्रतीत हुआ ..
कत्ल ए आम न होगा तो....
कत्ल ए खास तक कैसे पंहुचा जाये ...
जनपथ से होकर ही राजपथ तक पहुंचा जा सकता है ..
केंद्र की सरकार अस्थिर हो चुकी है ..
इन्तजार ...देख रहे हैं सब ...ऊंट किस करवट बैठेगा ...
और ...
मंथन ..सतत प्रक्रिया है ..रूकती कब है ..
बताओ ..क्या तुम रोक सके हो ..
या रोक सकते हो ..
यदि हाँ ...तो ..
तो तुम वास्तव में महान कहे जाओगे ..
और हम नत मस्तक खड़े मिलेंगे ..
तुम्हारी महानता के समक्ष ..!!..- विजयलक्ष्मी
अंत संस्कृतियों का या
सृजन की पहली सीढी..
बाहर कोकिला की आवाज सुन रही है ..
साथ एक और पंछी चल दिया ..
वही से कौवे ने भी कांव कांव् सुना दी ..
बाहर देखने पर कोई नहीं दिखा ..
फिर भी रस माधुरी सी घुल गयी हृदय के कोने पर ..
पंछियों की कलरव से ..
कलरव ..जी हाँ ..बहुत मीठा सा शब्द है ..
क्या उसमे कौवा शामिल नहीं ..
संस्कृतियाँ ..उनका मेल ..कुछ जुड़ता है कुछ टूटता है ..
सृजन और विनाश चलता है साथ ..
अधूरे है एक दुसरे के बिना या ...
पूरक है ...ये सत्य प्रतीत हुआ ..
कत्ल ए आम न होगा तो....
कत्ल ए खास तक कैसे पंहुचा जाये ...
जनपथ से होकर ही राजपथ तक पहुंचा जा सकता है ..
केंद्र की सरकार अस्थिर हो चुकी है ..
इन्तजार ...देख रहे हैं सब ...ऊंट किस करवट बैठेगा ...
और ...
मंथन ..सतत प्रक्रिया है ..रूकती कब है ..
बताओ ..क्या तुम रोक सके हो ..
या रोक सकते हो ..
यदि हाँ ...तो ..
तो तुम वास्तव में महान कहे जाओगे ..
और हम नत मस्तक खड़े मिलेंगे ..
तुम्हारी महानता के समक्ष ..!!..- विजयलक्ष्मी
Thursday, 4 April 2013
मेरे अंतर्मन में सिमटी कविता ..
कविता वही जो मन रंगों से रंगी गयी ..
है शब्द अधूरे खुद में लिखना कैसी कविता ..
साहित्य रथ पथि कविता या कविता मार्ग दर्शिका है ..
हर भाव बरसता है कविता सा ..
जब मन हर्षाता ..या दुःख से पूरित हो बरस जाता
जब नयन पीर से छलक उठे ,,
जब मन दग्ध क्षीर से भभक उठे ..
या अंतर्मन में ज्वाला हो ..
या रस माधुरी का छलकता प्याला हो ,,
पावनता हो वेड पुराणों सी ,,
कदमों के निचे चलती घर की आनों सी ..
हो धार पर चलना तलवार की या ..
नयन किरण उठे तीर कमान सी ..
ह्रदय धधक उठे ज्वालामुखी सा ..
या दीखता हो चेहरा दर्पण सा उजला ..
हुक उठे पिता के मन में पुत्र भले ही कपटी हो ..
पर कविता तो ह्रदय से उस क्षण भी लिपटी है ..
किस छोर कहूं किस और चलूं ..
किस को छोडूँ ..किसको बांधू..
मन भाव अधूरे से कविता ..
उतरे अंचल में कविता ..
बिखरी आंगन में कविता ..
मेरे अंतर्मन में सिमटी कविता ..
तेरे भीतर की हलचल कविता ..
माँ का प्यार बहन की राखी ..
घर के दीपक की लौ भी कविता ..
क्या धरती नदिया पर्वत दीखते ..
बहती पल पल में कविता ..
गिरते झरने बहती सरिता ..
क्रुद्ध हवा आंधी बनकर उद्जती है बनकर कविता ..
आत्मा के एक छोर से ..
कायनात के ओरछोर तक ..
बस मुझको दिखती कविता .-- विजयलक्ष्मी
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