सर्द रात है मैं छत पर .
गुफ्तगू सितारों से अपनी
वो नीले रंग की चमकती रात पर
साया धुंध का देखा
लिए कुछ सुरमई अखियाँ
चमक थी खोई सी जैसे
झांकता वो एक चेहरा
बड़ा अपना सा था
लगा एगबारगी सपना सा था
कुछ उदासी जैसे छाई थी
वो धुंध शायद दिल पर उतर आई थी
कही से प्यार का जुगनू दिखा टिमटिमाता सा
लगा फिर देखकर जान में जान आई थी
शब्द खामोश हो गये
नमी पत्तो पर उभर आई
भीगी कोर पलको की
अजब सी आज तन्हाई थी
उभर कर इक सितारा गिरा टूटकर ऐसे
नमी कोरो की भारी लग रही जैसे
दुआ में मांगते भी क्या
कुछ यादें ,, यादों में चहकता अहसास मांग डाला
जफा का रंग भी बसंती करार मांग डाला
बंद आँखों से दुआ इक और कर डाली
न टूटे कोई सितारा फिर ,,
न कोई दुआ रहे बाकी
हर दुआ के लिए कितने सितारे टूटेंगे भला बाकी
चमक फिर फीकी न रहे मुस्कान मांग डाली थी
बीत गयी रात सारी यूँ भोर थी होने वाली
विदाई मांग न पाए ,,
जुदा हम कर न सके
गुजरी रात यूँ दिल पर ,,
रात भर भी उतर न सके
अब उसी मुस्कान को लिए फिरते हैं
दर्द की बस्ती में भी मुस्कुराकर ही गुजरते हैं ||
---------- विजयलक्ष्मी
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