Monday, 25 September 2017

" मुस्कान सुलझा जाये उलझन "


















" मुस्कान सुलझा जाये उलझन 
दे जाये मरहम उन हरे जख्मों को 
काश , जिन्दगी सम्भल जाए 
औ नीले से आकाश से गहराता हुआ धुंध छंट जाए 
वो दिन ,, कब आएगा 
जब मैं एक औरत ...
जी सकूंगी एक पूरी जिन्दगी
अपने रंग ढंग से
एक सांस ले सकूंगी सिर्फ अपने रंग की
एक लम्हा गुजर सकूंगी .. उन्मुक्त मन से
या यूँही सो जाउंगी चिर निंद्रा ?
नहीं मालूम अगले पल का ,,
जिन्दगी किसे कब धोखा दे जाये और ले जाउंगी
एक ख्वाब ..
अपनी रूह में समाया हुआ
वो लम्हा जो बिताना था
वो एक साँस
जिसमे जिन्दगी को पाना था
काश ,,
मेरे हिस्से भी होती एक लम्हे की
खनकती उन्मुक्त सी हुक
जो चुभती नहीं ,,
खिखिलाती बेफिक्र उड़ते धुएं सी
किलकती नन्हे से बच्चे की तरह
उम्र भी होती नादाँ जब आग भी भली लगती है
उमड़ती है लालसा उसे पकड़ने की
लेकिन ,,सबके ख्वाबों में अपने ख्वाबों को खोकर ,,
पोंछ लेती हूँ नमी आँखों की
कभी गोबरी कभी बर्तन के साथ लीपती हुई उन्ही सपनों को
लगा फूंक सबकी चोट को सहलाने वाला आंचल घायल होता है जब ..
कानून भी बिक जाता है भरी जेब की गुलामी को
और जिन्दगी देने वाली देखती रहती है टुकुर टुकुर
अपनी लहू निर्मित कलाकृति को दुसरे के नाम लिखी हुई
खो जाती है नीले से आकाश में गगन के रंग को और गहराती हुई
और कालिख पोतती हुई गम किसी रात में शामिल
किन्तु ..
कैसा हक .. ओ जाहिल औरत ,अक्ल से पैदल |
|" ----- विजयलक्ष्मी

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