Wednesday 14 June 2017

"इक स्मितरेखा उभर आई होठो पर ..

स्थिर हुए भीगते हैं ,भीतर औ बाहर ..
आँखों पर अहम का पर्दा नहीं चढ़ता 
कलम से उतरे शब्द पढ़े हर किसी ने 
लहरों में उठा तुफाँ कोई नहीं पढ़ता 
फसल की कीमत भी जेब को देखकर 
हरियाली जरूरी, धूप कोई नहीं पढ़ता ||
--- विजयलक्ष्मी






"इक स्मितरेखा उभर आई होठो पर ..
सुबह की धूप जैसी ,
हर नाराजगी को याद करके गहराई और भी .
हर शब्द तुम्हारा अजब सी ताजगी देता है
टकराकर लहू मेरा मुझमे ..मेरा न रहे 
साँस मुस्कुराती है तपकर
तुम तूफ़ान सा टकराने की ख्वाहिश लिए
तेरे जज्बात का दीपक जलता है ..
तुम्हे रास नहीं तो बुझा दो आकर
यूँ तो तुम्हारी तमन्ना होकर भी नहीं
श्यामपट पर लिखी तहरीर झूठी लगती है तुम्हारी तरह
तुम्हारी आँखों में बसी है हकीकत
अहसास मेरे हैं ,
ख्वाब तुम्हारे भी शामिल है उनमे
जो न टूटने देते हैं न रूठने मुझको
सुनो ...
बहुत दिन हो गये न ..
तुमने मनाया भी नहीं " ||
.--- विजयलक्ष्मी





कुछ समय की खलिश है कुछ बेरहम है सिलसिला ,,
भीगे कितने किससे कहे ,, अहसास का ये काफिला 
कश्ती है मझधार अपनी उसपर भी टूटी पतवार है 
झूठ की बारात देखी औ सच दरकिनार ही बैठा मिला || ------ विजयलक्ष्मी






ए दिल ठहर 
यूँ न मचल
हर सांस पर
यूँ न बदल
अंजान सफ़र
वक्त का दखल
कैसी ये डगर
पहेली हर पल
तू न यूँ बिखर
समेटता चल
खुद से बेखबर
बढ़ता ही चल ।।
--- विजयलक्ष्मी





नीले छोर पर बैठा इक तारा तन्हा सा ,,
ढूंढता है रकीब बदलते मौसम सी फितरत लिए ||
इक जाल फेंकता है मछलियों के सलीब को 
एहतिमाल में नदी की समन्दर से रुखसत लिए ||
नजर नजर का फर्क नजर में ठहरा दिखा 

सुना वो खत लिए बैठे थे , ऐसे मिल्कियत लिए ||
-------- विजयलक्ष्मी



No comments:

Post a Comment