Wednesday, 28 June 2017

सरदार पटेल और हैदराबाद ,,, और ..........

सरदार पटेल और हैदराबाद ,,, और प्रथम प्रधानमन्त्री का गुस्सा ....

क्या आप को सरदार पटेल, हैदराबाद निजाम और MIM का किस्सा पता है ?? जिसकी खबर सुन के नेहरु ने फ़ोन तोड़ दिया था | तथ्य जो हम भारतीयों से हमेशा छुपाये गए ???
हैदराबाद विलय के वक्त नेहरु भारत में नहीं थे | हैदराबाद के निजाम और नेहरु ने समझौता किया था अगर उस समझौते पे ही रहा जाता, तो आज देश के बीच में एक दूसरा पकिस्तान होता |
मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन(MIM) के पास उस वक़्त २००००० रजाकार थे जो निजाम के लिए काम करते थे और हैदराबाद का विलय पकिस्तान में करवाना चाहते थे ।।
बात तब की है जब १९४७ में भारत आजाद हो गया उसके बाद हैदराबाद की जनता भी भारत में विलय चाहती थी | पर उनके आन्दोलन को निजाम ने अपनी निजी सेना रजाकार के द्वारा दबाना शुरू कर दिया ।।
रजाकार एक निजी सेना (मिलिशिया) थी जो निजाम ओसमान अली खान के शासन को बनाए रखने तथा हैदराबाद को नव स्वतंत्र भारत में विलय का विरोध करने के लिए बनाई थी।
यह सेना कासिम रिजवी द्वारा निर्मित की गई थी। रजाकारों ने यह भी कोशिश की कि निजाम अपनी रियासत को भारत के बजाय पाकिस्तान में मिला दे।
रजाकारों का सम्बन्ध "मजलिस-ए- इत्तेहादुल मुसलमीन" (MIM ) नामक राजनितिक दल से था।
चारो ओर भारतीय क्षेत्र से घिरे हैदराबाद राज्य की जनसंख्या लगभग1 करोड 60 लाख थी जिसमें से 85%हिंदु आबादी थी।
29 नवंबर 1947 को निजाम-नेहरू में एकवर्षीय समझौता हुआ कि हैदराबाद की यथा स्थिति वैसी ही रहेगी जैसी आजादी के पहले थी।
विशेष ........
यहाँ आप देखते हैं की नेहरु कितने मुस्लिम परस्त थे की वो देशद्रोही से समझौता कर लेते हैं | पर निजाम नें समझौते का उलंघन करते हुए राज्य में एक रजाकारी आतंकवादी संगठन को जुल्म और दमन के आदेश दे दिए और पाकिस्तान को 2 करोड़ रूपये का कर्ज भी दे दिया |
राज्य में हिंदु औरतों पर बलात्कार होने लगे उनकी आंखें नोच कर निकाली जाने लगी और नक्सली तैय्यार किए जाने लगे|
सरदार पटेल निजाम के साथ लंबी- लंबी झूठी चर्चाओं से उकता चुके थे अतः उन्होने नेहरू के सामने सीधा विकल्प रखा कि युद्ध के अलावा दुसरा कोई चारा नहीं है। पर नेहरु इस पे चुप रहे | कुछ समय बीता और नेहरु देश से बाहर गया ।।
सरदार पटेल गृह मंत्री तथा उपप्रधान मंत्री भी थे इसलिए उस वक़्त सरदार पटेल ने सेना के जनरलों को तैयार रहने का आदेश देते हुए विलय के कागजों के साथ हैदराबाद के निजाम के पास पहुचे और विलय पर हस्ताक्षर करने को कहा |
निजाम ने मना किया और नेहरु से हुए समझौते का जिक्र किया, उन्होंने कहा की नेहरु देश में नहीं है तो मैं ही प्रधानमंत्री हूं | उसी समय नेहरु भी वापस आ रहा था ,,अगर वो वापस भारत की जमीन पर पहुच जाता तो विलय न हो पाता इसको ध्यान में रखते हुए पटेल ने नेहरु के विमान को उतरने न देने का हुक्म दिया तब तक भारतीय वायु सेना के विमान निजाम के महल पे मंडरा रहे थे |
बस आदेश की देरी को देखते हुए निजाम ने उसी वक़्त विलय पे हस्ताक्षर कर दिए | और रातो रात हैदराबाद का भारत में विलय हो गया | उसके बाद नेहरु के विमान को उतरने दिया गया ।
लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल नेनेहरु को फ़ोन किया और बस इतना ही कहा ”हैदराबाद का भारत में विलय” ये सूनते ही नेहरु ने वो फ़ोन वही AIRPORT पे पटक दिया ”।।
उसके बाद रजाकारो (MIM) ने सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया जो 13 सितम्बर 1947 से 17 सितम्बर 1948 तक चला | भारत के तत्कालीन गृहमंत्री एवं ‘लौह पुरूष’ सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा पुलिस कार्यवाई करने हेतु लिए गए साहसिक निर्णय ने निजाम को 17 सितम्बर 1948 को आत्म-समर्पण करने और भारत संघ में सम्मिलित होने पर मजबूर कर दिया।
इस कार्यवाई को ‘आपरेशन पोलो’ नाम दिया गया था।
इसलिए शेष भारत को अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता मिलने के बाद हैदराबाद की जनता को अपनी आजादी के लिए13 महीने और 2 दिन संघर्ष करना पड़ा था। यदि निजाम को उसके षड़यंत्र में सफल होने दिया जाता तो भारत का नक्शा वह नहीं होता जो आज है, अौर हैदराबाद भी अाज कशमीर की तरह कोढ़ में खाज बनकर भारत को मुह चिढ़ा रहा होता !!!!

‘फील्ड मार्शल सैम बहादुर माॅनेकशाॅ’’

‘फील्ड मार्शल सैम बहादुर माॅनेकशाॅ’’
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अप्रैल 29, 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई. मीटिंग में हाज़िर लोग थे -
वित्त मंत्री यशवंत चौहान, रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम, कृषि मंत्री फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह और इन राजनेताओं से अलग एक ख़ास आदमी- सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ.
‘क्या कर रहे हो सैम?’ इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री की एक रिपोर्ट जनरल की तरफ फेंकते हुए सवालिया लहजे में कहा. इसमें पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों की बढ़ती समस्या पर गहरी चिंता जताई गई थी. सैम बोले, ‘इसमें मैं क्या कर सकता हूं!’ इंदिरा गांधी ने बिना समय गंवाए प्रतिक्रिया दी, ‘आई वॉन्ट यू टू मार्च इन ईस्ट पाकिस्तान.’ जनरल ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया, ‘इसका मतलब तो जंग है, मैडम.’ प्रधानमंत्री ने भी बड़े जोश से कहा, ‘जो भी है, मुझे इस समस्या का तुरंत हल चाहिए.’ मानेकशॉ मुस्कुराए और कहा, ‘आपने बाइबिल पढ़ी है?’
जनरल के सवाल पर सरदार स्वर्ण सिंह हत्थे से उखड़ गए और बोले, ‘इसका बाइबिल से क्या मतलब है,जनरल?’ मानेकशा ने कहा, ‘पहले अंधेरा था, ईसा ने कहा कि उन्हें रौशनी चाहिए और रौशनी हो गयी. लेकिन यह सब बाइबिल के जितना आसान नहीं है कि आप कहें मुझे जंग चाहिए और जंग हो जाए.’
‘क्या तुम डर गए जनरल!’ यह कहते हुए यशवंत चौहान ने भी बातचीत में दखल दिया. ‘मैं एक फौजी हूं. बात डरने की नहीं समझदारी और फौज की तैयारी की है. इस समय हम लोग तैयार नहीं हैं. आप फिर भी चाहती हैं तो हम लड़ लेंगे पर मैं गारंटी देता हूं कि हम हार जायेंगे. हम अप्रैल के महीने में हैं. पश्चिम सेक्टर में बर्फ पिघलने लग गयी है. हिमालय के दर्रे खुलने वाले हैं, क्या होगा अगर चीन ने पाकिस्तान का साथ देते हुए वहां से हमला कर दिया? कुछ दिनों में पूर्वी पाकिस्तान में मॉनसून आ जाएगा, गंगा को पार पाने में ही मुश्किल होगी. ऐसे में मेरे पास सिर्फ सड़क के जरिए वहां तक पहुंच पाने का रास्ता बचेगा. आप चाहती हैं कि मैं 30 टैंक और दो बख्तरबंद डिवीज़न लेकर हमला बोल दू!’ मीटिंग ख़त्म हो चुकी थी. इस दौरान जनरल ने इस्तीफे की पेशकश भी की, जिसे प्रधानमंत्री ने नकार दिया और उन्हें उनके हिसाब से तैयारी करने का हुक्म दे दिया.
1971 में भारत की पाकिस्तान पर निर्णायक जीत हुई और इस तरह एशिया में एक नए मुल्क का उदय हुआ. बांग्लादेश का निर्माण होना भारत और वहां के नागरिकों की संयुक्त सफलता थी लेकिन अगर हम इस युद्ध में भारत की अपनी एक अहम उपलब्धि की बात करें तो वह थी पाकिस्तान का हमारी शर्तों पर आत्मसमर्पण करना. भारतीय सेना ने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ी को सरेआम ढाका में आत्समर्पण करवाया था. पाकिस्तान की हारी हुई फौज ने हिन्दुस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा को गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दिया था. पाकिस्तान के 26,000 सैनिकों ने हमारे मात्र 3000 सैनिकों के सामने हथियार डाले थे. इसी तरह पश्चिमी सेक्टर में भी भारत की जीत मुकम्मल थी. यूं तो इस जंग में वायु सेना और जल सेना ने भी कमाल का प्रदर्शन किया था पर जीत का सेहरा मानेकशॉ के सिर बंधा और उनकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई. इसके पीछे कई कारण थे.
1857 के ग़दर से लेकर 1947 तक हिन्दुस्तान की अवाम का मनोबल टूट चुका था. आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की शुरू की गईं पंचवर्षीय योजनाएं बेअसर सी दिखाईं पड़ रही थीं. सामाजिक समस्याएं, जनसंख्या के साथ दिनों-दिन बड़ी और भयावह होती जा रही थीं. फिर रही-सही कसर चीन से मिली हार ने पूरी कर दी थी. वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ 1948 और 1965 की लड़ाइयों के नतीजों पर तो आज भी बहस जारी है. 1971 की जंग पाकिस्तान के साथ तीसरी लड़ाई थी. इसके पहले तक देश एक तरह से जूझना और जीतना तकरीबन भूल चुका था. यही वो दौर था जब भारत एक बड़े खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा था. तब देश को इस जीत ने ख़ुद में यकीन करने साहस दिया और इसके केंद्र में थे सैम मानेकशॉ, और यही वजह थी कि जनता को उनमें अपना नायक नजर आया.
तीन अप्रैल, 1913 को एक पारसी परिवार में जन्मे मानेकशॉ डॉक्टर बनना चाहते थे. लेकिन पिता ने मना कर दिया. लिहाज़ा बग़ावत के तौर पर सैम फौज में दाखिल हो गए. दूसरे विश्वयुद्ध में बतौर कप्तान उनकी तैनाती बर्मा फ्रंट पर हुई. उन्हें सित्तंग पुल को जापानियों से बचाने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी. उन्होंने वहां बड़ी बहादुरी से अपनी कंपनी का नेतृत्व किया था. उस लड़ाई में उनके पेट में सात गोलियां लगी थीं और वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे.
सैम के बचने की संभावना कम ही थी. उनकी बहादुरी से मुत्तासिर होकर डिवीज़न के कमांडर मेजर जनरल डीटी कवन ने अपना मिलिट्री क्रॉस (एक सम्मान चिन्ह) उन्हें देते हुए कहा, ‘...मरने पर मिलिट्री क्रॉस नहीं मिलता.’ इसमें कोई दोराय नहीं कि सैम अपनी बहादुरी साबित कर चुके थे और इस सम्मान के हकदार थे. लेकिन उनकी बहादुरी का यह किस्सा यहीं खत्म नहीं होता.
घायल सैम को सेना के अस्पताल ले जाया गया. यहां के एक प्रमुख डॉक्टर ने उनसे पूछा, ‘तुम्हें क्या हुआ है बहादुर लड़के?’ इस पर उनका जवाब, ‘मुझे एक खच्चर ने लात मारी है!’ अब ज़रा सोचिये कि किसी के पेट में सात गोलियां हों और जो मौत के मुहाने पर खड़ा हो, वो ऐसे में भी अपना मजाकिया अंदाज़ न छोड़े तो आप उसे क्या कहेंगे? शायद बहादुर!
आज़ादी के बाद सैम मानिकशॉ पंजाब रेजिमेंट में शामिल हुुए और बाद में गोरखा राइफल्स में कर्नल बने. बताते हैं कि इस दौरान एक बार जब वे गोरखा टुकड़ी की सलामी ले रहे थे तब उसके हवलदार से उन्होंने पुछा, ‘तेरो नाम के छाहे (है)‘ उसने कहा, ‘हरका बहादुर गुरुंग’. सैम ने फिर पूछा, ‘मेरो नाम के छाहे ?’ उसने कुछ देर सोचा और कहा, ‘सैम बहादुर!’ तबसे वे सैम ‘बहादुर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए.
1961 में वीके कृष्ण मेनन ने उनके ख़िलाफ़ यह कहकर कोर्ट ऑफ़ इंक्वायरी बिठा दी थी कि उनकी कार्यशैली में अंग्रेजों का प्रभाव दिखता है (उस समय मानेकशॉ स्टाफ कॉलेज में कमांडेंट के पद पर तैनात थे) मेनन ज़ाहिर तौर पर समाजवादी थे. संभव है कि वो उन्हें पसंद ना करते हों. पर मामले की गहराई में जाने पर कुछ और भी समझ आता है. सैम के समकालीन लेफ्टिनेंट जनरल बृजमोहन कौल नेहरू के करीबी थे और कौल साहब को कई बार इस बात का फायदा मिला.
1962 की लड़ाई में कौल चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ नियुक्त थे और उन्हें 4 कोर, मुख्यालय तेजपुर असम का कमांडर बनाया गया. सेना में यह पद - चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ, सेनाध्यक्ष से एक पोस्ट नीचे होता थी. इसलिए मुमकिन हैै कि कौल साहब को सैम पर तरजीह देने के लिए यह जांच बिठाई गयी हो? खैर, लेफ्टिनेंट जनरल बृजमोहन कौल बतौर कमांडर कोई तीर नहीं मार पाए थे. चीन भारत की पूर्वी सीमा पर हावी होता जा रहा था तब नेहरू ने कौल को हटाकर सैम मानेकशॉ को 4 कोर का जनरल ऑफिसर कमांडिंग बनाकर भेजा. चार्ज लेते ही जवानों को उनका पहला ऑर्डर था, ‘जब तक कमांड से ऑर्डर न मिले मैदान ए जंग से कोई भी पीछे नहीं हटेगा और मैं सुनिश्चित करूंगा कि ऐसा कोई आदेश न आए.’ उसके बाद चीनी सैनिक एक इंच ज़मीन भी अपने कब्ज़े में नहीं ले पाए और आखिरकार युद्ध विराम की घोषणा हो गयी.
यहां से सैम का ‘वक़्त’ शुरू हो गया. 1965 की लड़ाई में भी उन्होंने काफी अहम भूमिका निभाई थी. आठ जून, 1969 को गोरखा रायफल्स का पहला अफ़सर देश का सातवां सेनाध्यक्ष (4 स्टार) बना. 1973 में वे फ़ील्ड मर्शाल (5 स्टार) जनरल बना दिए गए. फ़ील्ड मार्शल कभी रिटायर नहीं होते, उनकी गाड़ी पर 5 स्टार लगे रहते हैं. वे ताज़िन्दगी फौज की वर्दी पहन सकते हैं और फौज की सलामी ले सकते हैं.
सैम का सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत कमाल का था. वे इंदिरा गांधी को ‘स्वीटी’, ‘डार्लिंग’ कहकर बुलाते थे. सरकारों को फौजी जनरलों से बहुत डर लगता है और जब जनरल मानेकशॉ सरीखे का बहादुर और बेबाक हो, तो यह डर कई गुना बढ़ जाता है.1971 के बाद आये दिन यह अफवाह उड़ने लगी थी कि वे सरकार का तख्ता पलट करने वाले हैं. इससे आजिज़ आकर, इंदिरा ने उन्हें एक दिन फ़ोन किया. यह किस्सा खुद मानेकशॉ ने एक इंटरव्यू में बताया था. इसके मुताबिक फोन पर और बाद में प्रधानंत्री के साथ उनकी जो बातचीत हुई वह इस प्रकार थी :
इंदिरा गांधी : ‘सैम, व्यस्त हो?’
सैम मानेकशॉ : ‘देश का जनरल हमेशा व्यस्त होता है, पर इतना भी नहीं कि प्राइम मिनिस्टर से बात न कर सके.’
इंदिरा गांधी : ‘क्या कर रहे हो?’
सैम मानेकशॉ : ‘फिलहाल चाय पी रहा हूं.’
इंदिरा गांधी : मिलने आ सकते हो? चाय मेरे दफ्तर में पीते हैं.’
सैम मानेकशॉ : ‘आता हूं.’
मानेकशॉ ने फिर फ़ोन रखकर अपने एडीसी से कहा, ‘गर्ल’ वांट्स टू मीट मी.’
सैम कुछ देर में प्रधानमंत्री कार्यालय पंहुच गए. वे बताते हैं कि इंदिरा सिर पकड़ कर बैठी हुई थीं.
सैम मानेकशॉ : ‘क्या हुआ मैडम प्राइम मिनिस्टर?’
इंदिरा गांधी : ‘मैं ये क्या सुन रही हूं?’
सैम मानेकशॉ : ‘मुझे क्या मालूम आप क्या सुन रही हैं? और अगर मेरे मुत्तालिक है तो अब क्या कर दिया मैंने जिसने आपकी पेशानी पर बल डाल दिए हैं?’
इंदिरा गांधी : ‘सुना है तुम तख्तापलट करने वाले हो. बोलो क्या ये सच है?’
सैम सैम मानेकशॉ : ‘आपको क्या लगता है?’
इंदिरा गांधी : ‘तुम ऐसा नहीं करोगे सैम.’
सैम सैम मानेकशॉ : ‘आप मुझे इतना नाकाबिल समझती हैं कि मैं ये काम (तख्तापलट) भी नहीं कर सकता!’ फिर रुक कर वे बोले,’ देखिये प्राइम मिनिस्टर, हम दोनों में कुछ तो समानताएं है. मसलन, हम दोनों की नाक लम्बी है पर मेरी नाक कुछ ज़्यादा लम्बी है आपसे. ऐसे लोग अपने काम में किसी का टांग अड़ाना पसंद नहीं करते. जब तक आप मुझे मेरा काम आजादी से करने देंगी, मैं आपके काम में अपनी नाक नहीं अड़ाउंगा.’
एक दूसरा किस्सा भी है जो सैम मानिकशॉ की बेबाकी और बेतकल्लुफी को दिखाता है. तेजपुर में वे एक बार नेहरू को असम के हालात पर ब्रीफिंग दे रहे थे कि तभी इंदिरा उस कमरे में चली आईं. सैम ने इंदिरा को यह कहकर बाहर करवा दिया था कि उन्होंने अभी गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. फिर एक बार किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जिन्नाह ने उन्हें पाकिस्तान आर्मी में आने का निमंत्रण दिया था. जब पत्रकार ने यह पूछा कि वे अगर पकिस्तान सेना में होते तो 1971 के युद्ध का परिणाम क्या होता? जैसी कि एक जनरल से उम्मीद की जा सकती है उन्होंने वैसा ही जवाब दिया. उनका कहना था, ‘...कि तब पाकिस्तान जीत गया होता...’
रिटायरमेंट के बाद कई कंपनियों ने उनकी सेवाएं लीं. वे कुछ के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स थे और कहीं मानद चेयरमैन. आज सैम की ज़िन्दगी और उनसे जुड़े किस्से किवदंती बन चुके हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि वे एक साहसी और चतुर जनरल थे.
नेपोलियन बोनापार्ट जब अपनी सेना के जनरल का चयन करता था तो उन तमाम विशेषताएं, जो एक जनरल में होनी चाहिए, के अलावा एक बात और पूछता था, ‘क्या तुम भाग्यशाली जनरल साबित होगे?’ आज हम कह सकते हैं कि सैम मानेकशॉ ‘बहादुर’ भारत के लिए भाग्यशाली भी थे.||
जय हिन्द !! जय भारत !!

" इसे कहते हैं राजनैतिक लोचा "

इसे कहते हैं राजनैतिक लोचा ---
'जै बीम' वाले अंबेडकर जी ने एक ब्राह्मण महिला से शादी की,
लेकिन वो ब्राह्मण नहीं हुये, बल्कि उनकी पत्नी ही दलित हो गई....
मीरा कुमार ने ब्राह्मण पुरुष से शादी की
लेकिन वे दलित की दलित ही रहीं,
ब्राह्मण नहीं हुईं.
समझने के लिए सारे योग उपयोग कर लिए... दिमाग की दही बन गयी लेकिन कोई गणित काम नहीं आया ||
ये कौन सा हिसाब है ?
या तो मीराकुमार दलित नहीं या फिर # जै_बीम अंबेडकर दलित नहीं.
या तो चतुर बोलो या फिर घोड़ा,
ये घोडा चतुर.. घोडा चतुर....क्या रे????


Tuesday, 20 June 2017

तुम ..तुम तो शुरू से ही अवांछित हो ,

सत्य दर्शन :--
ए खुदा मेरे
हर दुआ बद्दुआ बनती जा रही है
नहीं ...तुमने तो दुआ ही दी थी 

खराबी तेरी आत्मा में है ..सड़ गयी है बदबू है उसमे दुर्गन्धयुक्त हो चुकी है
किसी लायक नहीं बची ,,
अब इसका मिटना ही ठीक है ..खत्म होना अच्छा
रेंगते कीड़े बीमारी फैलाते हैं दुनियाभर की
और आतंकित रहती है दुनिया खौफ से
तुम्हारे खौफ से खुदा आतंकित रहने लगा है
जानते हो तुम ..इसी लिए कपाट बंद है तुम्हारे लिए
अपवित्र लोगो के मन्दिर में घुसने पर बंदिश होती है
पवित्र आत्माओ के साथ ही कोई शरीर प्रभु चरण वन्दना का हकदार होता है ,
तुम ..तुम तो शुरू से ही अवांछित हो ,
ए नारी तुम पतिता हो !
तुम्हारा पता क्या है ?
तुम्हारा पति कौन है ?
तुम्हे अधिकार दिया किसने ...स्वयम छीन लेना चाहती हो
तुम अछूत हो ..निकलो बाहर .....और इधर नजर तो क्या पैर करके भी मत सोना
प्रभु गंदे हो जायेंगे ..
अपमानित करती हो तुम ..
बहुत ताज्जुब हुआ था पहली बार ..जब नाम सुना था अपना ,,
कितना खुश थी न ...सिर्फ इस अहसास से ,कुछ तो वजूद है मेरा भी ,
लेकिन ...गंदे लोगो का वजूद नहीं होता ..वो भार स्वरूप होते हैं धरा पर
उनके लिए दया, प्रेम ,अधिकार, दोस्ती ,ईमान सब बेमानी है ,,
तुमपर इल्जाम है ...और भगवान कभी गलत नहीं होता ,
हमारी तुच्छ बुद्धि क्या समझेगी किसी परम तत्व को
अज्ञानी अधम ,हम प्रभु लीला को क्या जानेंगे ..
बस अनुगामी हो सकते हैं ...अधिकारी न होने पर देखना ..किन्तु
वो भी न होने पर एकाकी रहना ..अहिल्या बनकर
और इंतजार किसी राम का ,,
जो सम्भव नहीं है ..क्यूंकि ..
राम कलयुग में जन्म नहीं लेंगे ..
अब तुम्हे पुनर्जन्म लेना होगा .
और ये जन्म यूँही काटना होगा
परिष्कृत करना होगा ,,खुद को ..
जो सम्भव नहीं है इस जन्म में तो ..
तीन युग ...फिर राम का जन्म होगा ...और तब सम्भव है उद्धार तुम्हारा
यदि युग न बदला ?
यदि राम न आये ?
यदि एसा जन्म न मिला ?
तो ............
!!-- विजयलक्ष्मी

" दिल्ली का लालकोट "या ..............||

इतिहास जिसे इतिहास कर दिया और बदल दिया अँधेरे में ,, हमारे वास्तविक इतिहास के सूरज को अमावस्य कर दिया और विदेशियों के इतिहास को गले से लगा लिया ..नहीं जानते क्यूँ ..साक्ष्य बदले वास्तविकता बदली और न जाने क्या क्या .....लेकिन क्यूँ ?समझ से परे है .. आइये एक और ताला खोलते है आज ... राजधानी दिल्ली की जानीमानी इमारत का ...
" दिल्ली का लालकिला......या लाल कोट "


हमें पढाया जाता है कि दिल्ली का लालकिला शाहजहाँ ने बनवाया था| लेकिन यह एक सफ़ेद झूठ है और दिल्ली का लालकिला शाहजहाँ के जन्म से सैकड़ों साल पहले "महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय" द्वारा दिल्ली को बसाने के क्रम में ही बनाया गया था| महाराज अनंगपाल तोमर और कोई नहीं बल्कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे| इतिहास के अनुसार लाल किला का असली नाम "लाल कोट" है, जिसे महाराज अनंगपाल द्वितीय द्वारा सन 1060 ईस्वी में दिल्ली शहर को बसाने के क्रम में ही बनवाया गया था जबकि शाहजहाँ का जन्म ही उसके सैकड़ों वर्ष बाद 1592 ईस्वी में हुआ है| दरअसल शाहजहाँ ने इसे बसाया नहीं बल्कि पूरी तरह से नष्ट करने की असफल कोशिश की थी ताकि, वो उसके द्वारा बनाया साबित हो सके लेकिन सच सामने आ ही जाता है| इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि तारीखे फिरोजशाही के पृष्ट संख्या 160 (ग्रन्थ ३) में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल ( लाल प्रासाद/ महल ) कि ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया| सिर्फ इतना ही नहीं अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलिशान दिल्ली का निर्माण करवाया था| शाहजहाँ से 250 वर्ष पहले ही 1398 ईस्वी में एक अन्य लंगड़ा जेहादी तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है (जो कि शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है)| यहाँ तक कि लाल किले के एक खास महल मे सुअर (वराह) के मुँह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं क्या ये शाहजहाँ के इस्लाम का प्रतीक चिन्ह है या हिंदुत्व के प्रमाण? साथ ही किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है क्योंकि राजपूत राजा गजो (हाथियों) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे जबकि इस्लाम जीवित प्राणी के मूर्ति का विरोध करता है| साथ ही लालकिला के दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से एक कुंड भी बना हुआ है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है| साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि केसर कुंड एक हिंदू शब्दावली है जो कि हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होती रही है| मजेदार बात यह है कि मुस्लिमों के प्रिय गुंबद या मीनार का कोई अस्तित्व तक नही है लालकिला के दीवानेखास और दीवानेआम मे| इतना ही नहीं दीवानेखास के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है जो अपनी प्रजा मे से 99 % भाग (हिन्दुओं) को नीच समझने वाला मुगल कभी भी न्याय तुला की कल्पना भी नही कर सकता जबकि, ब्राह्मणों द्वारा उपदेशित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसिद्द है| दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वी के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है जो कि राजपूताना शैली मे बना हुई है| आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकार मंदिर है और, दोनो ही गैर मुस्लिम है जो कि शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए है| इन सब से भी सबसे बड़ा प्रमाण और सामान्य ज्ञान की बात यही है कि लाल किले का मुख्य बाजार चाँदनी चौक केवल हिंदुओं से घिरा हुआ है और, समस्त पुरानी दिल्ली मे अधिकतर आबादी हिंदुओं की ही है साथ ही सनलिष्ट और घुमावदार शैली के मकान भी हिंदू शैली के ही है सोचने वाली बात है कि क्या शाहजहाँ जैसा धर्मांध व्यक्ति अपने किले के आसपास अरबी, फ़ारसी, तुर्क, अफ़गानी के बजाए हम हिंदुओं के लिए हिन्दू शैली में मकान बनवा कर हमको अपने पास बसाता? और फिर शाहजहाँ या एक भी इस्लामी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन तक नही है| "गर फ़िरदौस बरुरुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्ता, हमीं अस्ता, हमीं अस्ता" - अर्थात इस धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यही है, यही है| केवल इस अनाम शिलालेख के आधार पर लालकिले को शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया करार दिया गया है जबकि किसी अनाम शिलालेख के आधार पर कभी भी किसी को किसी भवन का निर्माणकर्ता नहीं बताया जा सकता और ना ही ऐसे शिलालेख किसी के निर्माणकर्ता होने का सबूत ही देते हैं जबकि, लालकिले को एक हिन्दू प्रासाद साबित करने के लिए आज भी हजारों साक्ष्य मौजूद हैं| यहाँ तक कि लालकिले से सम्बंधित बहुत सारे साक्ष्य पृथ्वीराज रासो से मिलते है| इसके सैकड़ों प्रमाण हैं कि लाल किला वैदिक नीती से बनी इमारत है !!

Wednesday, 14 June 2017

"इक स्मितरेखा उभर आई होठो पर ..

स्थिर हुए भीगते हैं ,भीतर औ बाहर ..
आँखों पर अहम का पर्दा नहीं चढ़ता 
कलम से उतरे शब्द पढ़े हर किसी ने 
लहरों में उठा तुफाँ कोई नहीं पढ़ता 
फसल की कीमत भी जेब को देखकर 
हरियाली जरूरी, धूप कोई नहीं पढ़ता ||
--- विजयलक्ष्मी






"इक स्मितरेखा उभर आई होठो पर ..
सुबह की धूप जैसी ,
हर नाराजगी को याद करके गहराई और भी .
हर शब्द तुम्हारा अजब सी ताजगी देता है
टकराकर लहू मेरा मुझमे ..मेरा न रहे 
साँस मुस्कुराती है तपकर
तुम तूफ़ान सा टकराने की ख्वाहिश लिए
तेरे जज्बात का दीपक जलता है ..
तुम्हे रास नहीं तो बुझा दो आकर
यूँ तो तुम्हारी तमन्ना होकर भी नहीं
श्यामपट पर लिखी तहरीर झूठी लगती है तुम्हारी तरह
तुम्हारी आँखों में बसी है हकीकत
अहसास मेरे हैं ,
ख्वाब तुम्हारे भी शामिल है उनमे
जो न टूटने देते हैं न रूठने मुझको
सुनो ...
बहुत दिन हो गये न ..
तुमने मनाया भी नहीं " ||
.--- विजयलक्ष्मी





कुछ समय की खलिश है कुछ बेरहम है सिलसिला ,,
भीगे कितने किससे कहे ,, अहसास का ये काफिला 
कश्ती है मझधार अपनी उसपर भी टूटी पतवार है 
झूठ की बारात देखी औ सच दरकिनार ही बैठा मिला || ------ विजयलक्ष्मी






ए दिल ठहर 
यूँ न मचल
हर सांस पर
यूँ न बदल
अंजान सफ़र
वक्त का दखल
कैसी ये डगर
पहेली हर पल
तू न यूँ बिखर
समेटता चल
खुद से बेखबर
बढ़ता ही चल ।।
--- विजयलक्ष्मी





नीले छोर पर बैठा इक तारा तन्हा सा ,,
ढूंढता है रकीब बदलते मौसम सी फितरत लिए ||
इक जाल फेंकता है मछलियों के सलीब को 
एहतिमाल में नदी की समन्दर से रुखसत लिए ||
नजर नजर का फर्क नजर में ठहरा दिखा 

सुना वो खत लिए बैठे थे , ऐसे मिल्कियत लिए ||
-------- विजयलक्ष्मी



आओ बुलंद आवाज में वन्देमातरम उचारी जाए

चलो थोड़ी धज्जियां ईमान की उखाड़ी जाए ,
थोड़ी सी खपच्चियाँ छान की उतारी जाए 
बहुत गरज रहा है वो थोथे चने के जैसा 
चलो तो क्यूँ न हवा पाकिस्तान की निकाली जाये
दे रहे हैं सीख ..अपने घर में झांककर देखते नहीं है जो 
आओ बुलंद आवाज में वन्देमातरम उचारी जाए
मौत से डरते तो ईमान से मौन साध लेते
श्यामपट से वतन परस्ती की भाषा सिखा दी जाए
खोलकर आँख आज केसत्य से नजर मिलाओ
आगे बढो ,,एक बनकर नाक में नकेल डाली जाये
कश्मीर हमारा हिस्सा सुनो कान खोलकर
जिन्हें सुनाई नहीं दिया कान में गर्म तेल डाली जाये   ||
 ------------ विजयलक्ष्मी

Sunday, 4 June 2017

बताओ तो मेरी वसीयत लिखूं तो मगर लिखूं क्या ,,

बताओ तो मेरी वसीयत लिखूं तो मगर लिखूं क्या ,,
जिन्दगी नाम ए वतन जिसकी वसीयत में लिखूं क्या --- विजयलक्ष्मी







गर गुनाह है मुहब्बत तो ऐसा इक गुनाह हम भी कर बैठे,,
अजी, दोस्तों के जुल्मों सितम से तंग नामे वतन मर बैठे |------- विजयलक्ष्मी





चाहत वजाहत और जिंदगी ,
लो वफा की हुयी पूरी बन्दगी ..------ विजयलक्ष्मी




न द्वंद है न कोई विरोधाभास है ,
धरती गगन का आपसी विश्वास है 
हरित है धरती क्यूंकि प्रकाश है 
धरती के परीत: पसरा आकाश है --- विजयलक्ष्मी





आज वृक्ष नहीं काट रहे हो आप 
अपने बच्चो की जिन्दगी समाप्ति की ओर ले जारहे हो ,
न वृक्ष होंगे न ऑक्सीजन ..
न जिन्दगी बचेगी न आपके वंश |
मर्जी है आपकी ...समझ है कल की औलाद के बाप की 
भुगतेंगे सजा सबके बच्चे आज के महापुरुष पिता के पाप की
काटो जंगल ..मैदान बनाओ ,,
जमीन वृक्ष होने से क्या मतलब बस दौलत बनाओ ..
दौलत से गेहू उगेंगे तिजोरी में ,
दौलत से ऑक्सीजन बनेगी तिजोरी में
दौलत से सेहत ,दौलत से मुहब्बत ..
दौलत से ही इमानदारी मिलेगी टैग लगाकर
दौलत ही बांटेगी प्यार दौलत से इकरार ,,
दौलत से त्यौहार ..

दौलत ही बनेगी वंशबेल यार रहेगी तिजोरी में --- विजयलक्ष्मी








सेलेब्रिटी क्यूँ बनाते हो किसी को 
क्या उन्हें तुम्हारी कोई चिंता है ? ... 
इन्हें आपके स्वास्थ्य की नहीं अपनी जेब की चिंता है 
कोई आपको गोरा करने के एवज में कमाई दौलत से ऐय्याशी करता है 
कोई फास्टफूड को न्यूट्रीशस बताकर सेहत से खिलवाड़ करता है 
कौन है जो तुम्हे सीधी राह बतात्ता है ...
देशभक्तों को भूल झूठे प्रतीक घड़ने वालों ..

लक्ष्मीबाई भगतसिंह के देश को गर्त में मत मिलाओ
गौर करो जीवन को यूँही किसी के कहने से व्यर्थ न गंवाओ
इनकी बातों पर न जाना इनके कहे कुछ यूँही मत खाना
इनका तो काम ही है जनता का उल्लू बनाना
विश्वास न हो तो पेप्सी कोक को टॉयलेट में डालो
मैगी पिज्जा खाओ और डॉक्टर को मेहनत की कमाई दे आओ ---- विजयलक्ष्मी






कालबाधित कलम टूटकर गीत गाती गयी तभी और ..
सहमा सा सत्य साथ चल पड़ा ...
पहुचता भी कैसे भला सत्य अपनी मंजिल
राह में पकड़ने वाले खड़े, थे शातिर बड़े
चमगादड़ो के शहर में सन्नाटा तो नहीं था
संगीत बज रहा था फिर भला वीणा कैसे टूट गयी
सरगम कैसे छूट गयी ..
न सिद्धांत है न वेदांत है बस ...एक अजब सा अँधेरा है
और सूरज छिप गया समन्दर में ..
नूर बस गया अंतर में
काश सुनते सन्नाटे को ...रौशनी ढूढने वालो
नदी बहती है जैसे जिन्दगी बहती है
अहसास के भंवर साथ चलते हैं ...कश्ती सी याद लहर लहर चलती है
लिए वजूद है राग औ बन्दगी का
जहां एक ही स्वर गूंजता है जिन्दगी का ..
सृजन हो या विनाश ..पूरक या अधूरे से
सोचकर देखना कभी ...
महसूस करना इस अहसास को,
रास्ते में मेरी आवाज न खोई अगर .- विजयलक्ष्मी




यादे कहाँ है
अभी भूले तो होते
अहसास के झूले और झूले होते
काश ..दफन हो पाते
कब्र में तो चैन से सो पाते 
हर टुकड़ा खनक उठता है
खिसकते वक्त के साथ
वक्त की धार पर सवार
बेचैनी को बढ़ा देता है
मुस्कुरा उठते है
आहत सी आहट होती है
और ..
आइना सामने हो जैसे
मगर ..
उसमे हम नहीं ,,,
वहीं है ..या ..तस्वीर
या नजर का फितूर
मुझको नहीं खबर
और सुर सजने लगते है
साज बजने लगते है
धडकन कहती है ..
" में ही तो हूँ "
तुझमे बहते लहू के साथ
दिल पर लगती हर थाप के साथ ..
बस ..कोई नहीं है ..
रूह बनकर बसने वाले ..
खबर तो कर खैरियत की ,
यादे कहाँ है
अभी भूले तो होते
अहसास के झूले और झूले हो होते
काश ..दफन हो पाते
कब्र में तो चैन से सो पाते
हर टुकड़ा खनक उठता है
खिसकते वक्त के साथ -- विजयलक्ष्मी