Wednesday 15 June 2016

" आंगन से पर्यावरण ..."



" आंगन से पर्यावरण ...
.
तपती धूप में राहत देता रहा
बचपन झुलाता रहा गोद में
कभी दौडकर चढ़ते 
कभी पत्ते तोड़ते
कभी पकड़ कर मुझे झूलते तुम
तुम अकेले कब होते थे
पूरी चौकड़ी थी
धमाल था ..
एक या दो दिन नहीं
घड़ीभर या घंटे दो घंटे का नहीं
कोई समय ही नहीं था
तुम्हे न दिन सूझता था न सांझ
बस मन मचलना चाहिए ..
कितना लड़ते थे
मेरी एक टहनी पर बैठने के लिए तुम
याद है एक बार तुम गिर भी गये थे ...
फिर भी...कब माने थे तुम..
मेरी घनी छाँव तुम्हे सकूं देती थी न
भरी दोपहरी ..
कितने बेपरवाह थे तुम सूरज से ..
मेरी गोद में बैठकर जैसे चिढ़ा रहे होते थे सूरज को
और ...
कहते रहे होंगे ...ले तप ,,जल कितना जलेगा ..
तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता
तुम्हारी शैतानियाँ ..और मैं
मुस्कराहट आ जाती है आज भी तुम्हारी शरारतों पर
याद है ..जब तुम्हे माँ ने मारा था उस एक दिन भी ..
तुम आये और मुझे पकडकर रोने लगे थे ,,
तब लगा था ...मैं तुम्हारा सबकुछ हूँ..
माँ..पिता ..दोस्त सखा ..
तुम्हारे संग बीता हर पल आज भी आँखों में तैर जाता है ..
मैं झुमने लगता ..
लगता ..जैसे जिन्दगी को ही दुबारा से जी रहा हूँ,,
इस आंगन में बरसों से खड़ा हूँ तुम्हारे बिना ही ..
लेकिन ...कल तुम्हारा आना मुझे मार गया ..
और..मैं सूखने लगा हूँ ..
तभी से ..जब तुमने मेरी कीमत लगाई ..
अब मैं बूढा बेकार लगता हूँ ..
आंगन गंदा करता हूँ..मेरे पत्ते तुम्हे नहीं भांते अब
मेरी हवा भी तुम्हे ठंडी नहीं लगती ..
तुम्हे घर को बड़ा करवाना है..
अपने लिए जिम और अपने बेटे के लिए अलग कमरे की दरकार है
और इसका इलाज तुम्हारे पास है मेरी जिन्दा मौत ..
तुमने मेरे (सूखने) मरने का भी इंतजार न किया ,,
कितने स्वार्थी हो गये हो तुम..
मैंने तुम्हे ताज़ी हवा ..सुनहरा स्वच्छ बचपन दिया और तुमने ..
मुझे जिन्दा मौत..
मैं मर रहा हूँ ...अब ,,
क्यूंकि मैं जिन्दा था तुम्हारी यादों से
तुम्हारे न होने पर भी तुम्हारे साथ से ...
तुम ....कभी नहीं सुधरोगे ..
तुम्हारी माँ तुम्हे कितना कहती थी सहेजने कीआदत डालो
लेकिन तुम ..मुझे न सहेज पाए ...
कैसे सहेजोगे ...
ये पर्यावरण ..ये शुद्ध हवा ,,
ये ..संतुलित बरखा ...
और अपना असंतुलित भविष्य .....??
मैं मर रहा हूँ ...तुम चिंतित नहीं हो .
किन्तु ...मुझे चिंता है आज भी
हरीभरी धरती के बंजर होने की ,,
जलविहीन होने की
आग सा तपने की ..
वो तपिश आने वाले तुम्हारे वंश के लिए कितनी खतरनाक होगी ...
तुम नहीं समझ रहे हो अभी ...
जब तुम्हे समझ आयेगा ..
देख लेना ...उस एक दिन ..
बहुत पछताओगे तुम ...
हाँ ..तुम ...
याद रखना मुझे ...
क्यूंकि तब मैं नहीं रहूँगा ...तुम्हारे पास ....
और आज ....
मेरे आंसू समझने की तुम्हे न फुर्सत है न जरूरत
...|| "------ विजयलक्ष्मी


2 comments:

  1. हम जब पढ़ते थे तो नरकुल नामक वृक्ष की कलम से स्याही में डुबो डुबोकर खुशख़त लिखा करते थे। विजय लक्ष्मी ने उसी कलम से ब्लॉग लिखना शुरू किया है। बधाई ✿❀☀⛄

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  2. सामयिक रचना :) शुभकामनाये

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