Friday, 6 September 2024

जीना है स्वाभिमान के साथ

 क्षमा याचना करनी अरु क्षमा दान दोनों ही बंद करो 

जीना है स्वाभिमान के साथ, देशद्रोहियों से युद्ध करो 


जीवन जीने की इच्छाशक्ति यदि स्वाभिमान पर भारी है 

समझ लीजिए, गुलामी की तरफ बढ़ने की तैयारी है ,


जाति-पाति में ब्याह शादियाँ अलग बात सामाजिक है 

जनगणना कर लड़ना आपस में पूर्णतया राजनीतिक है 


किसने बोला लड़ने भिड़ने को, किन्तु एक होकर रहो 

हालात देखिए बांग्लादेश के, सत्य उजागर सत्य कहो 


सत्य नग्न है किन्तु नगण्य नहीं हो सकता कभी भी 

मानवता जिंदा है तबतक, जिंदा सनातन यदि अभी 


वसुधैव कुटुम्बकम अपनी संस्कृति अपना संस्कार है 

औरों के व्यवहार में नफरत के संग मात्र प्रतिकार है 


यदि झूठ झुठला सकते हो, झुठला कर के दिखलाओ तो 

कहाँ नहीं तोड़फोड़ की, इतिहास के पाठ पढ़ाओ तो 


अहिंसा पर हिंसा भारी देखी, सबकी साहूकारी देखी 

झूठ मचलता देखा रेत में , गद्दारों की मक्कारी देखी 


कुटिल चाल देखी सत्ता की, जनता संग मारामारी देखी 

जयचंद भी देखे, शिवाजी, महाराणा की जयकारी देखी 


विदेशी कठपुतली, नाचते नेता,झूठी शान हजारी देखी 

टूटे देश सत्ता की खातिर, कैसी कैसी मक्कारी देखी ।


विजय लक्ष्मी जलज

Monday, 28 December 2020

नव वर्ष कैसे है अपना यार

न रीत ये अपनी न संस्कार 
इससेे इतर नहीं न स्वीकार
न धरणी ने अपना रंग बदला 
न किया अभी सोलह श्रृंगार 

फिर कैसे कहते हो बोलो 
यह नव वर्ष है अपना यार 

बर्फीली ठंडी हवा गहरी है 
पर्वत पर्वत बर्फ ठहरी है
सिकुड़ी हुई प्रकृति बैठी है 
शीत लहर से लगती ऐंठी है 
न वासन्ती रंग छाया अभी
न भ्रमर की गूंजी है गुंजार 

फिर कैसे कहते हो बोलो
यह नव वर्ष है अपना यार 

न रौनक चेहरों पर दिखती
 सर्दी की चादर है लिपटी 
उष्णता कोहरे में सिमटी 
धरती भी है लिपटी लिपटी 
माना दासता से गुजरे हैं किन्तु
भूलेंं क्यूँ हम अपने व्यवहार 

फिर कैसे कहते हो बोलो 
यह नव वर्ष है अपना यार 

हां,विश्वबन्धुत्व अपना भाव है 
माँँ भारती का भी यही प्रभाव है 
जब पकी फसल लहराएगी 
कुहासेे भरी रात गुजर जाएगी 
तब ये धरती भी हर्षाएगी 
कलियोंं पुष्पों से कर श्रृंगार 

अभी समय आया ही नहीं वह
फ़िर कैसा नव वर्ष है आया यार


बदलेगा मौसम होगा रूप सुहाना 
नव वर्ष का तब होगा त्यौहार 
सब बर्फ पिघल कर बह पायेगी 
होंगे प्रफुल्लित मन में संचरित राग 
फिर मौसम होगा खुशियों का 
चहुँँ और बिखरेगी मस्त बयार 

रूप रंग की नव बेला सा
ये धरती भी कर लेगी श्रृंगार

चटकेंगी कलियां महकेगी बगिया
मलय पवन की बहेगी बयार
रति रूप धर मुस्कान धरेगी
काम देव ज्यूं ले लेंगे अवतार
हर रंग खिलेगा धरती पर तब
और मीठे झरने से वार्तालाप 

पंछी की चहक सुरीली होगी
प्रकृति में मादकता अपार

मौसम खुद देगा गवाही तब 
झूमम झूम मनाओ नव-पर्व हजार
बाजार भरेंगे रौनक होगी भरपूर
जीवनन में मीठी होगी बयार 
चैत्र मास की प्रथमा वासर को
देवी-पूजन करते संग मंत्रोच्चार 
सच कहूं मन को तो भाता है 
एक इकलौता वही नव-वर्ष हमार 
✍️ विजय लक्ष्मी

Sunday, 7 June 2020

उजड गए हम अपने मकान से

उजड गए हम अपने मकान से उनकी मेहरबानी हुई ..
वो रोज बुलाते थे हमे आवाज देकर ,


हम न समझे उनकी रंजिशें ,बेदिली भी रास आने लगी 
चल दिए अब वो हमसे मुह फेरकर .


उन्हें क्या कहें अब दिल रोता भी नहीं रिसता भी नहीं 
देखता वो दर..जिसे गए वो भेड़ कर ,


मेरी मुहब्बत तमाशा ही हो गई अब तो, क्या छुपाऊँ
नाम न आयेगा, जुबां चली अहद लेकर.


छोड़ दिया मेरी गली आना और आवाज लगाना भी ..
थक गयी जिंदगी भी उन्हें आवाज देकर.


रोशन उजाले किसी और छत पे हों कोई गिला नहीं
मेरी मुडेर से सूरज चला रौशनी लेकर ,


सिमटने की जरूरत ही खत्म हुई अब उजड़ने दो हमे
मर भी न पायंगे हम, बदनामी देकर.


रोशन रहे दुनिया, दुआयें जो सुन सकें कही अनकही
नासूर हुए हम नामुराद चाहतें लेकर .
---विजयलक्ष्मी
No photo description available.

Wednesday, 1 January 2020

"सोचो ,क्यूँ हैं कांटे संग गुलाब के ,

"सोचो ,क्यूँ हैं कांटे संग गुलाब के ,
कैसा खालीपन है बिन इन्कलाब के ?
मंजिलों की राह आसां नहीं होती 
क्यूँ सूनापन रोता है बिन सैलाब के ?
रिश्ता रूहानी बे-सबब खूब हुआ 
क्यूँकर सिमटी दुनिया बिन ख्वाब के ?
शून्य पसरा क्यूँ समन्दर के खारेपन सा
कमल खिलता कब है बिन तालाब के ?" 

------- विजयलक्ष्मी
.
जीना सीखने के बाद भी आहत आहट रुला जाती है ,,
जिन्दगी अहसास के फूल पलको पर खिला जाती है ।।   ---- विजयलक्ष्मी


इश्क औ गम का रिश्ता भला रिसता क्यूँ हैं ,,
मुस्कुराकर इश्क की चक्की में पिसता क्यूँ है ||    --- विजयलक्ष्मी































नम मौसम को बदलती है उमड़ते अहसास की गर्म चादर 
 ,,
जिसे ओढकर अक्सर मातम भी खुशियों का राग सुनाता है।।  ----   विजयलक्ष्मी




और मुस्काती हूँ बैठ ख्वाब के हिंडोले मैं ,,
रच बस मन भीतर पुष्पित रगों के झिन्गोले में | 
विजयलक्ष्मी