कौन पढ़े आँखों की नमी ,,
कौन सुने अब क्या है कमी
दिन हंसते न रात सोये
मन कलियों सा सहमा सहमा
समय भी जैसे ठहरा ठहरा
उसी मोड़ पर नजरें टँगी टँगी
काया माया रंगी रंगी
और बोल मीठे से चुभते
जाने क्यूँ सब सपने अपने लगते हैं
क्या भूलू क्या याद करूं
किससे किसकी फरियाद करूं
जब से सच को पढना सीखा
जीना जैसे भूल गया मन
है तृषित जैसे हो चातक ...
धूप तडपती आंगन आंगन
कुछ महके महके से दामन में जैसे ठहरे हैं
लेकिन लगता है मन को जैसे ..
आँखों के अब भी पहरे हैं ,,
देख रही है गीली सी होकर
कब तुम मिलने आओगे ...
दिल कहता ,,,,
तैयार मिलेंगे जब आवाज लगाओगे
ओ मन के परिंदे ,,सो जा ....
आ इक लोरी गुनगुना दूं ,,
इस एक जन्म की || -------- विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment