सहर को सलाम कर ली जाये ,
रौशनी कि किरण धरा को छू रही है ,
महकते गुलों से नयनाभिराम दृश्यों को देख ....
जिंदगी को समय की चाल के साथ चलने दे ..
न मिला उसमें तृष्णा को ,न बैरभाव को ..
सम्भल चल सफर यूँ ही कटेगा छाँव में ..
प्रकृति को छूने चाह न रख ...निहार और खुशियाँ मना ,
नाजुक होते है रेशम से भाव बहने दे बस ...
उनको चलने दे यूँ ही इस छोर अनजान सा ...
डर है न टूट जाये घरौंदा कोई गर तुफान आ गया ..
सोच क्या वो मंजर क्या होगा ,...सहन कर सकेगा क्या ..
जीवन की राह पर सब हाथ में नहीं ...मगर साथ में तो है ..------------विजयलक्ष्मी
रौशनी कि किरण धरा को छू रही है ,
महकते गुलों से नयनाभिराम दृश्यों को देख ....
जिंदगी को समय की चाल के साथ चलने दे ..
न मिला उसमें तृष्णा को ,न बैरभाव को ..
सम्भल चल सफर यूँ ही कटेगा छाँव में ..
प्रकृति को छूने चाह न रख ...निहार और खुशियाँ मना ,
नाजुक होते है रेशम से भाव बहने दे बस ...
उनको चलने दे यूँ ही इस छोर अनजान सा ...
डर है न टूट जाये घरौंदा कोई गर तुफान आ गया ..
सोच क्या वो मंजर क्या होगा ,...सहन कर सकेगा क्या ..
जीवन की राह पर सब हाथ में नहीं ...मगर साथ में तो है ..------------विजयलक्ष्मी
2.
मुझ पर न सही खुद पर भरोसा कर ,
जिंदगी को साथ में ही देखा कर ..
मुश्किल है मिलना सब कुछ जहाँ में ,
जो मिला है उसमे ही रौशनी को भी देखा कर,
बता क्या आ जाये निकलकर बाहर बात फिर ...सोच ??
तमाशा होंगे और जमाने का रंग देखना ..
देखना उड़ता धुआँ और कलिखों का रंग देखना ..
उड़ते गुबार और जालिमों का ढंग देखना ..
बयाँ बजी का निराला ही ढंग देखना ..
बता बोल दूँ ...सोचता क्या है बोल अब ..
चल थोडा सोच कर ही बोलना ..
जो बोलते नहीं ....अभी ...अखबार छाप डालेंगे ..
हर बात का अपना अलग मतलब निकालेगे ..
शांत मना होकर चलो ..रे मन ..
दुनिया इसी का नाम है ...रे मन ..--------- विजयलक्ष्मी
मुझ पर न सही खुद पर भरोसा कर ,
जिंदगी को साथ में ही देखा कर ..
मुश्किल है मिलना सब कुछ जहाँ में ,
जो मिला है उसमे ही रौशनी को भी देखा कर,
बता क्या आ जाये निकलकर बाहर बात फिर ...सोच ??
तमाशा होंगे और जमाने का रंग देखना ..
देखना उड़ता धुआँ और कलिखों का रंग देखना ..
उड़ते गुबार और जालिमों का ढंग देखना ..
बयाँ बजी का निराला ही ढंग देखना ..
बता बोल दूँ ...सोचता क्या है बोल अब ..
चल थोडा सोच कर ही बोलना ..
जो बोलते नहीं ....अभी ...अखबार छाप डालेंगे ..
हर बात का अपना अलग मतलब निकालेगे ..
शांत मना होकर चलो ..रे मन ..
दुनिया इसी का नाम है ...रे मन ..--------- विजयलक्ष्मी
3.
न्याय मंदिर का देवता ,सुना है बिक चुका है ,
और परेशां हाल है अब उसका पुजारी ..किसने खरीदा है ,
मालूम तो कर लो ..खबर सच है क्या ?- विजयलक्ष्मी
और परेशां हाल है अब उसका पुजारी ..किसने खरीदा है ,
मालूम तो कर लो ..खबर सच है क्या ?- विजयलक्ष्मी
4.
शुक्रिया दोस्त और दोस्ती पर भरोसा..
हम तो समझे थे भरोसा उठ चुका है ,
बसने से पहले ही बस्ती के गाँव लुट चुका है
इतना तो बहुत है की जिंदगी बाकी है ..
.दोस्त और दोस्ती भी तेरी अपनी ही है ..----------विजयलक्ष्मी
हम तो समझे थे भरोसा उठ चुका है ,
बसने से पहले ही बस्ती के गाँव लुट चुका है
इतना तो बहुत है की जिंदगी बाकी है ..
.दोस्त और दोस्ती भी तेरी अपनी ही है ..----------विजयलक्ष्मी
5.
तपती धरा पर कदम जो चल चुका हों ...
जानता है हर हकीकत को अंदर तलक ..
क्या हुआ गर आज महलों की बारी है ..
हर इंसान कुछ जगहों पर यूँ भी भिखारी है ..
मापता जिंदगी भर कदमों से दूरी ..
कहाँ तलक पहुंचा क्या माप दी धरती पूरी ,
रंग बीजों में छिपा उसके ही भीतर ...
सहरा में ही खिलेगा या खिल सकेगा गमले की रेत पर ..
बोनसाई हों गए मनुज अब ..
इसलिए रंगत लिए खिलते मिलंगे गमले सी देह पर .----------.विजयलक्ष्मी
जानता है हर हकीकत को अंदर तलक ..
क्या हुआ गर आज महलों की बारी है ..
हर इंसान कुछ जगहों पर यूँ भी भिखारी है ..
मापता जिंदगी भर कदमों से दूरी ..
कहाँ तलक पहुंचा क्या माप दी धरती पूरी ,
रंग बीजों में छिपा उसके ही भीतर ...
सहरा में ही खिलेगा या खिल सकेगा गमले की रेत पर ..
बोनसाई हों गए मनुज अब ..
इसलिए रंगत लिए खिलते मिलंगे गमले सी देह पर .----------.विजयलक्ष्मी
6.
धरा कम लगने लगेगी इंसानी विस्फोट से
सोच पौधों की कमी कैसे पूरी होगी जनसंख्यां की चोट से
जब जमी बाकी न होगी ,दुनिया अधूरी सी लगेगी ..
साँस की मजबूरियाँ कैसे बता पूरी होंगी ..
सभ्यता की दौड में खुद को इतना बेबस न कर ..
तीलियों में आग कितनी ,आकार से शख्शियत की माप न कर ..
सोच धरती की साँस पूरी गमलें ही तो कर सकेंगे ..
गुण तो सारे वृक्ष के ही ,,,,आकार कैसे धर सकेंगे
नीम का दरख्त भी खोने लगा ...बरगद तो बरगद है ,
बोनसाई से उनके बीज को तो बचा ..
काट डाले है धरा से वृक्ष कितने मानवों ने ,
शर्म आती कहने में इंसान , कर्म उनके दानवों से ,
क्या करे अब तुम ही कहो ,वक्त वक्त की बात है ...
कभी जिंदगी है चाँदनी सी औ कभी काली रात सी सौगात है.-- विजयलक्ष्मी
सोच पौधों की कमी कैसे पूरी होगी जनसंख्यां की चोट से
जब जमी बाकी न होगी ,दुनिया अधूरी सी लगेगी ..
साँस की मजबूरियाँ कैसे बता पूरी होंगी ..
सभ्यता की दौड में खुद को इतना बेबस न कर ..
तीलियों में आग कितनी ,आकार से शख्शियत की माप न कर ..
सोच धरती की साँस पूरी गमलें ही तो कर सकेंगे ..
गुण तो सारे वृक्ष के ही ,,,,आकार कैसे धर सकेंगे
नीम का दरख्त भी खोने लगा ...बरगद तो बरगद है ,
बोनसाई से उनके बीज को तो बचा ..
काट डाले है धरा से वृक्ष कितने मानवों ने ,
शर्म आती कहने में इंसान , कर्म उनके दानवों से ,
क्या करे अब तुम ही कहो ,वक्त वक्त की बात है ...
कभी जिंदगी है चाँदनी सी औ कभी काली रात सी सौगात है.-- विजयलक्ष्मी
7.
"wo katl ki raat mere,
neend aankhon ko chhoo bhi na saki,
laut gayi pawan bhi chhookar badan ko,
pasar gaya sannata........
bheetar bahar har taraf,door talak,
jhini si chadar faili thi,
yahi dekhna hai kitni majboot hai dor?
dono chhoron ko bandh kar baithi hai jo,
jeevan ,sans,ahsaas sabhi kuchh daanv par hai.
waqtn hi jawab de payega,
main zinda hoon abhi talak ya.........
maut ki lambi bahen pasar chuki hai meri taraf?
ya prem ki majboot dor mujhe bacha le jayegi.............
apne sath aur..........
wazood kayam rahega mera........
aur main duniya dekhoongi........
kya kokh se nikal kar??????????
[WBM]
YE MAJAAK NAHI HAI AAJ BHI HAQIKAT HAI
.... SOCHYEGA JAROOR........
neend aankhon ko chhoo bhi na saki,
laut gayi pawan bhi chhookar badan ko,
pasar gaya sannata........
bheetar bahar har taraf,door talak,
jhini si chadar faili thi,
yahi dekhna hai kitni majboot hai dor?
dono chhoron ko bandh kar baithi hai jo,
jeevan ,sans,ahsaas sabhi kuchh daanv par hai.
waqtn hi jawab de payega,
main zinda hoon abhi talak ya.........
maut ki lambi bahen pasar chuki hai meri taraf?
ya prem ki majboot dor mujhe bacha le jayegi.............
apne sath aur..........
wazood kayam rahega mera........
aur main duniya dekhoongi........
kya kokh se nikal kar??????????
[WBM]
YE MAJAAK NAHI HAI AAJ BHI HAQIKAT HAI
.... SOCHYEGA JAROOR........
8.
अभिव्यक्ति क्या दर्द ए दिल है ..
काश छंद को आता दर्द को बांधना ..
श्रेष्ठ होता वही जो दिल में उतर जाए...
काश छंद को आता दर्द को बांधना ..
श्रेष्ठ होता वही जो दिल में उतर जाए...
काश शिकायतों से काम हों जाता ..
अल्फाज मगर कम थे ,
अपनापन दरों पर लावारिस सा खड़ा मिला ...
अल्फाज मगर कम थे ,
अपनापन दरों पर लावारिस सा खड़ा मिला ...
है पानी की दरकार ....
प्यास तो खुद भी है उसमे .....
घूंट घूंट की खतिर हुए है सब बेजार .
प्यास तो खुद भी है उसमे .....
घूंट घूंट की खतिर हुए है सब बेजार .
तृष्णा है सब ,ख्वाहिशें दर्द का सबब ..
आत्मिक संतुष्टि की दरकार रही मुझे ..
देह डुबा देगी नेह उतरेगा ,जाना है उस छोर ..
आत्मिक संतुष्टि की दरकार रही मुझे ..
देह डुबा देगी नेह उतरेगा ,जाना है उस छोर ..
छोड़ कर सब न बहक ,
सत्य की खुशबू सा यूँ महक ...
अम्बर सा एक दिन तेरा अपना वजूद होगा .------ - विजयलक्ष्मी
सत्य की खुशबू सा यूँ महक ...
अम्बर सा एक दिन तेरा अपना वजूद होगा .------ - विजयलक्ष्मी
9.........(23/8/14 )
प्रेम वासना होती है तो मीरा पागल थी सच है ,
क्यूँ प्रेम की देवी बताकर बरगलाते हो औरत को
अचानक लगने मुझे मंजिल खो गयी मेरी ओझल आँखों से है
कदम लडखडाये क्यूँ ,इस मोड़ पर आये क्यूँ ..
देह का ये छोर मुझे छोड़ता क्यूँ नहीं ..
हे श्याम ..तू भी कुछ बोलता नहीं .
मीरा बदनाम सही थी ..जहर के प्याले की सच्चाई झूठी हुई कैसे
नागपाश को पहना था तो मीरा बची कैसे ,
कोई तो राज होगा इसमें भी ..
ये भेद किसको मालूम था कोई तो था एसा जिसे मालुम हर सच था
मदद कोई तो करता था ..छुप छुप मीरा पर मरता था ..
जिन्दा रहे मीरा हर उपाय करता था .
मीरा न हो घर में किसी के इसीलिए इंसान आज भी डरता है ,
इसीलिए अध्यात्म किताबो मेंरखकर .. देह से प्यार करता हैं .
हम गलत साबित हुए ...चलो फिर रुखसती पक्की ..
तुम देह के पुजारी हो ..हमे कब्र लगती है रूह की अपनी
तुम्हारी आवाज तुम्हारे शब्द ललकारते रहे मुझको
रूह खिचती थी मुझको मुझसे जुदा करके
तुम न समझोगे प्रेम की परिभाषा .
.फिर क्यूँ रौशनी तरंगित करती रही मुझको --------- विजयलक्ष्मी
क्यूँ प्रेम की देवी बताकर बरगलाते हो औरत को
अचानक लगने मुझे मंजिल खो गयी मेरी ओझल आँखों से है
कदम लडखडाये क्यूँ ,इस मोड़ पर आये क्यूँ ..
देह का ये छोर मुझे छोड़ता क्यूँ नहीं ..
हे श्याम ..तू भी कुछ बोलता नहीं .
मीरा बदनाम सही थी ..जहर के प्याले की सच्चाई झूठी हुई कैसे
नागपाश को पहना था तो मीरा बची कैसे ,
कोई तो राज होगा इसमें भी ..
ये भेद किसको मालूम था कोई तो था एसा जिसे मालुम हर सच था
मदद कोई तो करता था ..छुप छुप मीरा पर मरता था ..
जिन्दा रहे मीरा हर उपाय करता था .
मीरा न हो घर में किसी के इसीलिए इंसान आज भी डरता है ,
इसीलिए अध्यात्म किताबो मेंरखकर .. देह से प्यार करता हैं .
हम गलत साबित हुए ...चलो फिर रुखसती पक्की ..
तुम देह के पुजारी हो ..हमे कब्र लगती है रूह की अपनी
तुम्हारी आवाज तुम्हारे शब्द ललकारते रहे मुझको
रूह खिचती थी मुझको मुझसे जुदा करके
तुम न समझोगे प्रेम की परिभाषा .
.फिर क्यूँ रौशनी तरंगित करती रही मुझको --------- विजयलक्ष्मी
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