Tuesday, 15 October 2019

वो ताजा चाँद ...

मर्यादित 
आवश्यकता 
और ख़ुशी ..
हाँ ... मैंने ढूंढ ली है 
नमी में ख़ुशी 
पूनम की रात सी 
खिलती चांदनी सी ख़ुशी
तपती रेत की गर्मी में
महसूस की ख़ुशी
मन की भूख में ..
बरसात में ख़ुशी
जेठ की धूप में देखी ख़ुशी
सच कहूं ....
शायद ..मैंने
पढनी सीख ली है ख़ुशी
अभी लिखना बाकी है
मुझे पकडनी सीखनी होगी
एक दिन ..
पिजरे में रख लुंगी ख़ुशी
बिलकुल तुम्हारी तरह ..
किन्तु ...
मुझे साधनी होगी ख़ुशी
बिछड़ना तो न पड़ेगा
खुद से
किसी अर्थ हेतु .
शायद
तब कहीं ....
बहुत बिखरी पड़ी है 

चहुँ ऑर
आओ बैठकर मुस्कुराते हैं
कोई गीत गुनगुनाते हैं 

बसंत के आगमन का 
भरकर तमाम ख़ुशी 
वो ताजा चाँद ...
बिलकुल " तुम सा "

----  विजयलक्ष्मी

जी हाँ ...वही सैनिक हूँ


कोई बिखेरने की फ़िराक में 
कोई समेटने की ..
कोई लिपटने की फ़िराक में 
कोई लपेटने की ..
मैं ..भा रत ..भारत में रत हूँ 

राष्ट्र विदेह होकर ही सत हूँ
जी हाँ ..मैं प्रहरी ..मैं रक्षक हूँ
मैं ही भारत भाल पर नत हूँ
लुटाकर मिटाकर जो बढ़ता चला
छाती पर दुश्मन की चढ़ता चला
आन .मान , शान पर मरता चला
खुद को निसार करता चला
लहू से श्रृंगार करता चलता
प्रेम की खातिर जलता चला
राष्ट्रहित खुद से मुकरता चला
जी हाँ ...वही सैनिक हूँ
!!जयहिंद , जय भारत !
!
----- विजयलक्ष्मी