" यही सच है ..कलम मुर्दों के साथ नहीं मरती ..
लेकिन मर गयी कलम मुर्दे का साथ ,,
हताशा है या स्वार्थपूरित विकृत चेहरा
सत्य तो सत्य रहेगा नहीं बदलता मुर्दे के साथ "
लेकिन मर गयी कलम मुर्दे का साथ ,,
हताशा है या स्वार्थपूरित विकृत चेहरा
सत्य तो सत्य रहेगा नहीं बदलता मुर्दे के साथ "
" काश वो कुत्ते ही होते तो अच्छा था,
बस मुहब्बत वतन से करते तो अच्छा था ,
बंद कपाट चाटुकार चरण पूजते जो
ख़ुदकुशी कश्मीर पर करते तो अच्छा था
मर गये भोपाल कांड में जहर से
याद इंसानियत को करते तो अच्छा था
निकम्मों की जमात का अफ़सोस कैसा
जले आसाम पर मरहम रखते तो अच्छा था
शहीदों की चिता ख़ाक करने वाले
सवाल चरित्रों पर उठाते तो अच्छा था
अच्छी लगी होगी इमरजेंसी उन्हें
चारण भाट बनकर गीत ईमान के गाते तो अच्छा था
कभी सोचते निरपेक्ष नियत से
सोये जमीर को अपने जगाते अच्छा था
चाटुकारिता से पुरुस्कार पाने वाले
कभी भूखों के घर में झांकते तो अच्छा था
गिद्ध सिद्ध हो गये, सिद्ध पैबंद भी नहीं
कभी सूरज से आँख मिलाते तो अच्छा था "
----- --- विजयलक्ष्मी
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