Saturday, 25 May 2013

वफा के दर के बहुत करीब हो तुम

न चैन पाकर न चैन खोकर ,
जिन्दगी बहुत अजीब हो तुम .

कभी तुमसा रईस कोई नहीं 
कभी लगता कितनी गरीब हो तुम.

इक आंख हंसती हैं क्यूँ
दूसरी से लगती कम नसीब हो तुम

तुम्हारी बेवफाई रास आ रही है
वफा के दर के बहुत करीब हो तुम

हर रंग खूबसूरत है तेरा ए मुहब्बत
चाहे कितनी भी अजीब हो तुम
.- विजयलक्ष्मी 

वीणा कैसे टूट गयी

जरूरत की रात और चमकते जुगनुओ की दुश्मनी है शायद 
बिना बात चले जाते है और जरूरत पर मुह छिपाते हैं 
सृजन कहाँ खो गया जुगनू के संग अँधेरे में खो गया 
कालबाधित कलम टूटकर गीत गयी तभी और ..
सहमा सा सत्य साथ चल पड़ा ...
पहुचता भी कैसे भला सत्य अपनी मंजिल
राह में पकड़ने वाले खड़े, थे शातिर बड़े 
चमगादड़ो के शहर में सन्नाटा तो नहीं था 
संगीत बज रहा था फिर भला वीणा कैसे टूट गयी 
सरगम कैसे छूट गयी ..
न सिद्धांत है न वेदांत है बस ...एक अजब सा अँधेरा है
और सूरज छिप गया समन्दर में ..
काश सुनते सन्नाटे को ...रौशनी ढूढने वालो
जहां एक ही स्वर गूंजता है जिन्दगी का ..
सृजन हो या विनाश ..पूरक या अधूरे से
सोचकर देखना कभी ...रास्ते में ये आवाज न खोई अगर .
- विजयलक्ष्मी

Monday, 13 May 2013

मैं कर्ज क्यूँ पिता का











मुझे क्यूँ मार डाला , 
क्या हक नहीं जीने का मुझे , 
क्या जीवन सिर्फ लडको के लिए है .. माँ,
क्या मुझे इतना भी हक नहीं है  
बिता सकूं कुछ पल ममता की छाँव में ,
क्यूँ मर डालना कहते है सब लोग महज मैं लड़की हूँ ... 
मैं कर्ज क्यूँ पिता का ,
मैं दर्द क्यूँ हूँ तुम्हारा  
क्यूँ वजन हूँ भाई के कंधों का  
क्यूँ उतरन हूँ दादी की बातों का  
क्यूँ आंसूं बनी आँखों में दादा की 
ये कैसी कहानी चली  
ये कौन रीत चली 
कौन सी बही बयार .. 
सबका सबकुछ... 
नहीं बस मेरे हिस्से प्यार ..
बस मार !! मार !! मार !!
कन्या के ऊपर ही उठते है हथियार
... हाँ कन्या भ्रूण इसे मार !!.--विजयलक्ष्मी

Tuesday, 7 May 2013

ये रंग वफा का ..


ये रंग वफा का है मेरी जो मेरे भीतर ही बहता है 

जिन्दगी मिलती जिस दिल से ये उसी में रहता है
.- विजयलक्ष्मी 

खुद को झूठा बना रखा है ..

मुहब्बत की बस्ती न उजाडना मेरी ,
इसमें बस एक ही नाम तो लिखा रखा है हमने ,
किससे कह दूँ वो तमाम किस्से दिल के ,
हर लम्हे में तेरी मुहब्बत को छिपा रखा है हमने .
कोई लम्हा बीतता नहीं तुमसे जुदा होके ,
धडकनों पे भी तेरा ही नाम लिखा रखा है हमने .
भूल न हों जाये भूल से भी हमसे कोई ,
आइना भी अपना तुझको ही बना रखा है हमने .
कहीं बदनाम न हों जाओ, कैसे कहूँ तुमको ,
दुनिया के सामने खुद को झूठा बना रखा है हमने
.- विजयलक्ष्मी