Friday, 1 March 2013

आइना पूछता है कौन हों तुम ह्मीसे ..




दिल ए हालात अब सम्भलते नहीं है,
 
डूबे है इस कदर ,अब उबरते नहीं है .

आइना पूछता है ,कौन हों तुम ह्मीसे ,
हालात भी शायद,अब सुधरते नहीं हैं.

काटती है चुप्पी बता इस कदर क्यूँ ,
चीखते हुए शब्द भी,अब सुनते नहीं हैं.

लाइलाज घोषित किया जा चुका अब ,
शफाखानो में नुस्खे ,अब मिलते नहीं है. 

है राह ए मुहब्बत कंटीली सी पता था ,
गुलिस्ताँ तुम बिन ,अब महकते नहीं हैं .

...विजयलक्ष्मी 

अमावस सा बसर क्यूँ है ...

क्या बेवजह चर्चा ए मुहब्बत उड़ रहे है बाजार में ,
आग फैली कैसे ,ये बता , माचिस दिखाई किसने .


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तौबा ,ये सबक याद नहीं होता ,जाने क्यूँ ?
चाँद में दाग भी हों और चाँदनी मरती भी उसे पे है .


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इंसानी फितरत भी अनोखी होती है जनाब ,
कोई बिकने को तैयार है खरीदे तो सही ,
किसी किसी की कीमत भी नहीं आंक पाते आप .


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उजले से दिन पर भी अंधेरों का असर क्यूँ है ,
कौन मंजिल है है यहाँ ,हर कदम सफर क्यूँ है .
रात तन्हा जाती है अमावस सा बसर क्यूँ है ,
राह सूझती नहीं कोई बता, छाया कहर क्यूँ है
....विजयलक्ष्मी 

जिन्दा हों बहता रहे सांसों में असर,

चश्म ए साकी से पी, लब ए सागर की ख्वाहिश न रहे ,
बेखुदी खुद मुझसे हर वक्त पनाह मांगे ,जरूरी क्या है .

दर्द ए बिस्तर पे नींद की परवाह करे भी क्यूँ कोई ,
अहसास ए तमन्ना में एक ही बसेरा हों, जरूरी क्या है .

यूँ तो मेले लगते चाहतों के जमाने में हर मोड पर ,
उस भीड़ में कोई खुदा सा चाहने वाला हों, जरूरी क्या है .

वो सबकी की नजर में खुदा भी हों जाये तो कोई बात नहीं ,
बेखुदी उसकी बस अपनी ही नजर हों ,जरूरी क्या है .

सोच ,न जलवो में बसर ,न हों गम ए शब की सहर ,
जिन्दा हों बहता रहे सांसों में असर, अब जरूरी क्या है .
..विजयलक्ष्मी 

Wednesday, 27 February 2013

कब छोडोगे छलना ..

सुना है -औरत नाच रही है नंगई नृत्य ,
बताओ तो - करता कौन है है यह कृत्य .
सुना है - औरत बिक रही है सरे बाजार ,
बताओ तो - क्यूँ हों गए हैं ऐसे आसार .
सुना है -वक्त की धार कुछ कुंद हों चली ,
बताओ तो - क्यूँ रौंदी जाती है खिलने से पहले कली .
सुना है - औरत हों गयी बदकार ,
बताओ तो - कौन करता  है उसका व्यापार .
सुना है - समाज खराब हों रहा है ,
बताओ तो - किसका दिमाग खराब हों रहा है .
सुना है -कीमत लगी है शरीरों की ,
बताओ तो - इबारत किस्मत में लिखी हुयी तकदीरों की .
सुना है - औरत हिस्सा है बराबर ही घर का ,
बताओ तो - कभी दिया है दर्जा क्या बराबर का .
सुना है - औरत घर की रानी होती है ,
बताओ तो - क्यूँ दुर्गति औरत की ही होती .
चलो बंद कर दो औरत का घर निकलना ,
बस एक यही हल है लगता तुमको बाकी ,
हे पुरुष !तुम इस निर्णय को न कभी बदलना...
औरत को स्वामिनी कहकर बताओगे क्या कब छोडोगे छलना
..विजयलक्ष्मी 

उड़ना था पतंग सा ..




उड़ना था पतंग सा ,....
डोर बांधेगा अपनी ...
या यूँ ही खड़ा रहेगा ...
चरखी लिए अपनी ...
कुछ देर निहार कर आकाश ..
चल देगा होकर निराश ..
देखकर पतंग बाजों को ..
देखकर ऊँचे उड़ते बाजों को ..
और ..कदम ठहर कर मुड जायेगें दूसरी और ..
जाने को दुनिया के दुसरे छोर ..
सोच ले ...सोचकर बताना ..
इच्छा हों तो चले आना
.
- विजयलक्ष्मी



बसंत की पतंग ,,


बसंत की पतंग ,,
लिए उड़ने की चाह 
वो भी छत पर खड़ा 
था मुंडेर से टिका 
निहार रहा था ,,
पतंग
उडती थी नील गगन
मंथर मंथर ,,
कभी गुलीचा मारती ..
कभी इतराकर उपर उड़ जाती ..
जैसे जिन्दगी उडी चली जा रही थी
दूर इस दुनियावी दस्तूर से
अनंत को पाने की चाह में
अंतर्मन को छूने की राह में
जैसे छा जाना चाहती थी
इस मन के अनंत आकाश में
हो पवन वेग पर सवार
यूँ डोर संग करती इसरार
ज्यूँ उँगलियों से पाकर इशारा
मापना चाहती हो आकाश पूरा
जैसे एक दिन में जीना चाहती है
पूरी जिन्दगी ,,
या ..
पूरी सदी
या ..पूरा युग ,,
या पूरा ही कल्प ,,
जन्मों की गिनती क्या करनी 

डर लगता था टूट गिरी 
अटकी लटकी ..
गिरती फटती 
बस एकांत गिरी जाकर 
न लूट सका ..
न छूट सका 
मन पर पैबंद लगा बैठी
बस ,,
कुछ और नहीं ,,
प्रेम प्रीत की डोर बंधी जैसे
जीवन पूरा जी उठी ऐसे
क्या बसंत की पतंग सी ... ||
 ----- विजयलक्ष्मी