Thursday, 3 August 2017

" मुहं अँधेरे उठती है "

" मुहं अँधेरे उठती है 
ठंडे चूल्हे तकते है राह 
लीपती है जिन्हें अपने चेहरे से भी पहले 
चढ़ती है पतीली अलसुबह 
सूरज भी करता है झुककर नमन 
लगता है जैसे सूरज को जगाती है चूल्हे की गर्मी से
बिन ब्रश के दातुन नीम की
उम्र से पहले उम्र दराज सी
मन से कोमल मतवारी सी
घर और खेत को मांजती है कंधे से कंधा मिलाकर
ठंडी छाज और गर्म दूध
चलता है रसोड़े में जिनके बसी रोटी के संग
समझ और ईमानदारी की महीन छलनी
छनकती है सास के पैरो पर मालिश करते हाथों में
उनकी घुमक्कड़ी रहती है घर घेर और खेत तक
मैका भी याद आता है सावन की ठंडी सी फुहार के गीतों में
देती है मीठे सिटने
तिसपर
कभी बुआई कभी कटाई
अबके बरस ननद का गौना
परके बरस ब्याही थी चौमासे में
अभी ब्याई गैया की बछिया चार दिन की ही हुई
जेठ की दुपहरी नहीं तपाती उन्हें
हाँ वही तथाकथित जाहिल सी दिखती औरते
लम्बा सा घुंघट और निश्छल सी मुस्कुराहट
नहीं लेती पति का नाम आज भी
सीता की तरह तिरछी नजर बताती है जीवनसाथी का अर्थ
नहीं समझ सकोगी कभी ..."तुम "
उस लज्जा की चादर को ..
जो बंधी है पिता के द्वारा बांधे गये इज्जत के खूंटे से
तुम जाम छलकाओ और चिरौरी करो
नारी विमर्श पर लम्बी लम्बी बाते करो
व्याखान लिखो पुरूस्कार पाओ
और करो गलबहियाँ नाच ,,,
चखना की तरह महिला के नाम पर कलंकित करती हुई तुम्हारी सोच
नहीं छू पाएगी पावनता की वो पराकाष्ठा
जाहिल शब्द का वास्तविक अर्थ तुम नहीं समझ सकोगी कभी ||
" ----- विजयलक्ष्मी

1 comment:

  1. जो जिस राह से गुजरता है उसे ही उसकी अच्छे से पहचान रहती है
    बहुत सुन्दर

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