Monday 31 March 2014

"हमे टूटते हुए देखना अच्छा लगा था न तुम्हे एकदिन .."

तुम निभाओ ..और
निभाने दो 
हमे भी 
अपनी मुहब्बत शौक से 
हमे सूरज का खौफ है ...अच्छा है न ..लो बस कह दिया तुमको 
और ...तुम बस इतना ही समझ लो ..तो ..
बहुत है हमारे लिए .
हमे टूटते हुए देखना अच्छा लगा था तुम्हे न एकदिन ..
करो प्रहार ..कितने कर सकते हो ..
मगर याद रखना .......
न हो ..किसी दिन 
तुम खुद भी टूट जाओ .......
हमे तोड़ने में
और सन्नाटा गहन होता चला जाये
अभी परिधियाँ बांधी हैं तुमने
हमारे लिए ..
और ......
टूटकर बिखरो ,तो ..हम नजर भी न आये ..
हमे झूठ की चिंगारी लगानी नहीं आती
मगर जब आग जलती है घर में ..खौफ तुम जैसो को डसता है ..
मेरा टूटना तुम्हे ख़ुशी दे गया इक दिन
तभी से
तुम रुक रुक प्रहार करते चले गये ..
और .... किसी दिन ...या तो ....
तुम भी जल जाओगे इस आग में ,
या ..हम विलीन
न डरा मुझको आग से यूँ ..
मैं माचिस हूँ ...दीप और मशाल जलाती हूँ
गर ..ये आग
पकड़ ली किसी दिन ..तो
भस्मीभूत हो जायेगी
सुलगकर
मेरे साथ ही
ये दुनिया .-- विजयलक्ष्मी

Thursday 27 March 2014

"सत्य तो अक्सर ही छला जाता है "

सत्य तो अक्सर ही छला जाता है 
झूठ बहुत ही नजदीक चला जाता है

अक्सर सत्य के काँधे चढ़ जाता है 
झुठ से सत्य भी आहत हो जाता है

बहरूपिया नवरूप धर चला आता है
सत्य के सम्मुख नहीं ठहर पता है 

उखड़ जाते है पैर लेकिन झूठ ठहरा 
बेशर्म झूठ मुहं उठाये चला आता है

लज्जा नहीं आती इसे सत्य यही है
ओढ़ सत्य का दुशाला चला आता है

हकीकत से मुहं चुराए कैसे ये झूठ
सत्य की आंधी में उड़ता चला जाता है

स्यह्पन साथ लिए श्वेत की चाहत में
सूरज तो कभी चाँद को गहना जाता है.-- विजयलक्ष्मी

"...देशराग से क्यूँ हैं विमुख गजले अभी !"

हालत हैं चिंताजनक ,देशराग से क्यूँ हैं विमुख गजले अभी !
सत्ता ने भी नजरे फेरी .......हैं खराब खड़ी हुयी फसले सभी !!

बंदूक बोई खेत में आजाद हिन्दुस्तान हो औ खेले जान पर !
शहादत को नकारा कृषक बेसहारा कीमत माटी फसले सभी !!

आढतें जिनकी खुली ऐश में वही लकड़ी की जिनकी टाल हैं !
आत्महत्या या मरे कोई मुर्दा होता मानुष हुयी फसले सभी !!

भूख में संगीत नहीं होता गूंजती है चीख मुर्दा हुए लोगो की !
चाँद रोटी होता ,सूरज तवा सा सेकता रोटी सी गजले सभी !!

हर बूंद पसीने की लहू को खाती जाती है गरीबी के चूल्हे में !
हर भूखा बिकेगा या बनेगा दधिची, हाड बनेगे असलेह सभी !!--- विजयलक्ष्मी

"..न हो कोई चिंगारी भडक उठे .."

आओ क्यूँ न इस रात फिर जलकर महक लिया जाये ,
पंछी तो नहीं हूँ लेकिन ...चिरैया सा चहक लिया जाये .

चाँद चल दिया चांदनी संग सूरज ओढ़ समन्दर सोया ,
तमन्ना बोल उठी ...तन्हा यादों संग बहक लिया जाये .

खनकते हुए अहसास बिखरे हैं नजारों में हर तरफ मेरे ,
छनकी है सुरलहरी ..मद्धम सी मदिर लहक लिया जाये .

राख के ढेर भी कुरेदने में लगा सुखनवर है या सरफरोश,
न हो कोई चिंगारी भडक उठे ... चलो दहक लिया जाये . -- विजयलक्ष्मी

Monday 24 March 2014

"इतनी तो बंजर न थी दिल की जमी अपने "

" इतनी तो बंजर न थी दिल की जमी अपने ... ये अकाल पड़ा क्यूँ ,

अन्नदाता की हुकुमत, बीज औ पानी ,कर्ज का जंजाल पड़ा क्यूँ 


मुहब्बत औ खुलूस भरी खूबसूरत वादियाँ थी वतन की हमारे


ये रंज औ गम का बादल बरसा नहीं ..इन्सान बेहाल पड़ा क्यूँ 


ये सियासी परचम दीखते वतन के रंग में रंगे .. वतन बीमार पड़ा क्यूँ 


ये कैसी हुकुमत है आज मेरे वतन में ...देशभक्त के सर आतंकी जंजाल पड़ा क्यूँ 


हर कोई खुद को वतनपरस्त बताकर गुनगुना रहा है ,,देश बदहाल पड़ा क्यूँ 


खनक कर गूंजता रहा संगीत हवाओं में जिन गलियों में.. सन्नाटा बेख्याल पड़ा क्यूँ 


संस्कृति संस्कार जहाँ रगों में बहते रहे ..मान का अपमान खुले हाल पड़ा क्यूँ 


पूजते इन्सान क्या नारी ..क्या पशु ...कत्लखाना बेमिसाल खड़ा क्यूँ 


राजशाही ठाठ बे-इमानो के हुए ..मेहनतकश ईमान पे चलने वाला ही तंगहाल खड़ा क्यूँ


पूजते हैं ऐशगाह चरित्रहीन थे वही चरित्रशुदा हुए .. घर भगवान के ताला पड़ा क्यूँ 


सोचकर देखना कोई खता हुयी हो कहीं ...बिन बात सवाल खड़ा क्यूँ ?"--- विजयलक्ष्मी

"ईमान लगे कीमत ..तू बचा क्या वो बिका क्या "

जो चढके उतर जाये भला एसी मय का क्या ,
चढ़े भी खबर खुदा तक न जाये तो मजा क्या .

सियासी दांव भी खेला खेलने वालों ने अक्सर,
भरोसा टूटके और भी बढ़ जाये तो सजा क्या .

दर्द की इन्तहां देखी सीखा मरमर के जीना भी 
अहसास रहे जिन्दा ये वस्ल क्या वो कजा क्या .

तुम आइना बन जाओ इन आँखों को जरूरत है 
खरा ईमान हो सौदा ..झूठा क्या वो सच्चा क्या

तुम्हारे बाजारु सिक्कों में जो बिकता हो बिके

ईमान लगे कीमत ..तू बचा क्या वो बिका क्या .-- विजयलक्ष्मी

Sunday 23 March 2014

" तुझको जिन्दा रखकर भी जिन्दा रह लेती हूँ "

जानती हूँ समाज बदल गया यही आवाज उठेगी ..किन्तु अंतर्मन में झांककर सच का आइना सामने रखकर बोलना ..क्या वाकई में हम और हमारा समाज इतना बदल गया है ...या अभी भी कोई कमी है ..

एक सत्य अटल सा ..
फिर क्यूँ झुठला जाती है उसे 
औरत की मृत्यु ..
फिर भी दिखती है जिन्दा 
कितनी बार मरी या मारी गयी 
जन्म से से पहले से शुरू हुयी कवायद 
सम्भावना जगत में जीव के आने की..
पहला डर--लडकी तो नहीं ..मर गयी वो उसी पल ..इसी खौफ से 
जाँच में पाया गया ..लडकी ही तो है ..
उफ़ ..लडकी ,,नहीं चाहिए ..फिर मरी अहसास से 
उसके बाद की कवायद ..
टुकड़ों में काट काटकर
एक औरतनुमा जीवनदायिनी ने मुक्ति देदी ...
एक पुरुष के जिम्मेदारी से भागने पर ..
और वो वही मर गयी ...समर्थ पिता की असमर्थ बेटी जो ठहरी .
गर यहाँ बच गयी किस्मत की मारी ..मरेगी जन्म के समय ..
खबर में उतरा चेहरा लिए जब सिस्टर आई और बोली ..
लक्ष्मी आई है ...और पिता थूक भी सटक नहीं सकेंगे सदमे में ..
वो मर जाएगी समझ आने से पहले ...क्या हुआ ?
फिर मरेगी अक्सर भूख से रोते रोते ...माँ को जब फुर्सत न होगी काम से
बिलख बिलखकर रोते रोते कितनी बार साँस टूटती टूटती जुड़ेगी मेरी ..
या हो सकता है धतुरा ही चटा दिया जाये आँखे के ढूध में मिलाकर ..और मुक्त ,
न कर पाई कोई दाई या चाचा चाची कोई ये काम ..साँस न टूटी गर ..
जिन्दा से शरीर में होगा फिर मरण जब चलेगी पैरो पर और दौड़ेगी बाहर को
या आगमन होगा नये शिशु का भाई बनकर ..
उसकी खुशियों का अम्बार मेरी मुस्कुराहट तो छीन लेगा ..
वंशबेल बढ़ी चिराग है घर का और मैं पराई ..पैदा होने पर हुई या पहले से थी..
आजतक भी समझ नहीं पाई
ख्वाब छिनने थे छिनने लगे ..काम के नाम पर
औरत जात थी न मैं
हर ख्वाब के साथ मरती और फिर जिन्दा हो जाती अगला ख्वाब आँखों में बसाए
घर के काम से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई ..
भाई डॉक्टर या इंजीनियर जो भी बनना चाहे ..
मुझे कॉलेज की पढ़ाई भी प्राइवेट ही कराई ..
अब मैं भूल रही थी मरना अपना जिन्दगी के हर कदम पर ..
हर कांटे का दंश जैसे जीवन सिखलाता चलता था
जीवन की निराशा में भी मैंने हंसना सिख लिया था ..
पराई थी पराई कर दी गयी ..
ख्वाब पिता का ..इज्जत खानदान की कांधे धर दी गयी
और ..फिर नया सा ख्वाब सजाया पलकों पर ..
पर गरीबी और औरत होने ने पीछा नहीं छोड़ा
पराई आँखों ने दहलीज के भीतर भी देह को नहीं छोड़ा
लेकिन मैंने भी फिर से अगले ख्वाब को सजाना नहीं छोड़ा ..
कभी देह से कभी नेह से समाज ने बलात प्रहार किये
जख्म मिले जितने उतनी मेहनत और सफाई से मैंने सिये
ठान लिया मन में किसी भी जख्म को पैबंद सा नहीं लगने दूंगी
फिर एक नन्हीं सी परी ...उसे नहीं मरने दूंगी ..किसी लम्हे को दुबारा नहीं गुजरने दूंगी
लेकिन क्या एसा ही हो पाया ..क्या घर समाज पुरुष इतने आजतलक बदल पाया
हर मुमकिन कोशिश फिर भी बच्चों की हंसी में अपना खोया बचपन जी लेती हूँ
टूटते हुए ख्वाब के जख्म फिर फिर सी लेती हूँ ..
औरत हूँ न हर मना के बाद भी उड़ान हौसले की उड़ लेती हूँ ,,
मरती हूँ भीतर से या टूटकर जी लेती हूँ ,,
कैसा भी हो जहर अब तो बिन आवाज बेखटके पी लेती हूँ
कोशिश भी करती हूँ लड़ने की ..
कदम दर कदम मंजिल पकड़ने की
कहीं कुछ तो है ...बार बार मरती हूँ ...पर जिन्दगी जी लेती हूँ
औरत हूँ न ...पंख धरे गिरवी जैसे चिरैया के ..
लेकिन उड़ान हौसले की रूह से आज भी उस लेती हूँ
मौत भी हार रही है हरा हराकर मुझको ,,
मैं जो भी जैसी भी ..किसी से नहीं लड़ सकती गर खुद से तो अब लड़ लेती हूँ
मैं औरत हूँ ..इल्जाम और चुप्पी का नाता बहुत पुराना है
ये समाज एसा ही है हर युग में इसको एसा ही आना है
मैं हूँ आधी दुनिया कहने को ..
फिर भी तेरी आधी दुनिया को पूरा कह देती हूँ
मैं औरत हूँ ...हौसले का दूसरा नाम हूँ ..
तुझको जिन्दा रखकर भी जिन्दा रह लेती हूँ .--- विजयलक्ष्मी

Saturday 22 March 2014

" देश का सच लिखूं या देश की बेजारी लिखू "

देश का सच लिखूं या देश की बेजारी लिखू 
लिखूं बहता लहू गरीब का पानी सा .. भूख लिखूं या उसकी लाचारी लिखूं 
लिख दूं खेत में जलती फसल नफरत की आंच पर 
लिख दूं तूफानी हवा या ओलो को पडती झड़ी 
लिख दूं बेटी का नजरों से गुजरना साहूकार की और कांपना माँ के दिल का 
लिख दूं भेद भरी नजरों से दुनिया का ताकना 
लिख दूं घर में कैद बेटी बहु की छटपटाहट ...जिन्हें सिसकने की आजादी नहीं 
लिख दूं दर्द माँ का जिसका सपूत ब
ेच गया जमीं जायदाद विदेश जाने की खातिर
लिख दूं उस बहन का दर्द .. 

भाई सीमा पर मारा गया और खबर भी न ली सरकार ने
लिख दूं बहन की आँख के सपने टूट गये बेटे की पढ़ाई पर
लिख दूं वही सफरनामा जहां ख्वाब देखने की मनाही है कुँवारी आँखों को
लिख दूं वो सफर जब मुहब्बत के नामपर बेच दी घर शादी की खातिर लाइ इक लडकी
लिख दूं पुलिस की दलाली का किस्सा रपट लिखवानी थी शहर के बदनाम व्यक्ति की
लिख दूं उसी पाती की कहानी किसान की जुबानी जिसमे बैंक से कर्जा लिया जाना था
लिख दूं सभी बातें कर्ज की खातिर कितना हिस्सा रिश्वत दिया जाना था
लिख दूं दलाल ने पैसा खाकर प्रधानमन्त्री के नाम पर जब लाइसेंस बनवाया था
लिख दूं दलाल उसी आदमी को जो नौकरी की खातिर साथ लाया था 

लिख दूं भरी जवानी हुयी विधवा पर कितनी नजरे थी गडी पैनी होकर
लिख दूं दफ्तरी को कितने पैसे देकर फ़ाइल को निकलवाया था
लिख दूं चुनावी रात से पहले दारू साडी और पैसो का बंडल पड़ोसी के घर भी आया था
बहुत मुश्किल बयाँ करना हकीकत ..
कसम सच्चाई की खाकर खुद कितना झूठ बोल आया था
मास्टर जी ने भी पढ़ने की खातिर घर अकेले ही बुलाया था
इल्जाम को उठी ऊँगली तो चोरी का इल्जाम लगाया है
टीवी पर कल रात ही सीता सावित्री को नहीं सनी लियोन को दिखाया था
छोड़कर देशभक्तों की तस्वीर ...बुत किसी फ़िल्मी हीरों लगवाया था
मनचली करने की ट्रेनिग के स्कूल खुल गये हर नुक्कड़ पर
हिन्दू मुसलमान की बात छोडो ..जाती के नाम पर ही देश को बटवाया था
क्या लिखूं क्या छोडूं कितनी गिनाऊँ सत्य की तस्वीर जब जब पलटी
कहाँ से लाऊँ सबूत पत्रकारिता पर भी बिके होने का आरोप कल ही लगाया था
दर्द के किस्से पुरानी लगती है हर बात ...
देह बेच राजनीती का आरोप था जिसपर उसी औरत को अबला कहकर इनाम लिस्ट में उपर पाया था ..
सच कहना भी मुश्किल है ..और सच सुनना भी मुश्किल
यहाँ मौकापरस्ती का बोलबाला है ..
खुद को बचाने की खातिर जाने किस किस पर क्या इल्जाम लगा डाला है
जिसने जितने कत्ल किये उसे ही खुदा कह डाला है ..
इक मेरी किस्सागोई को भला अब कौन सुनने वाला है ..-- विजयलक्ष्मी

Thursday 20 March 2014

"ये रोशन चरागात ओ आफ़ताब मुबारक तुमको "



"नींद के आगोश में खिलते ख्वाब मुबारक तुमको ,
उठा हर कदम जानिब ए मंजिल मुबारक तुमको .


दर्द ए बयार तेरी गली से न गुजरे कभी इस तरह 

दर कदम महकती बयार बसंती मुबारक तुमको .


चटकती कलियों का मौसम न बीते बगीचे से तेरे 

शबनमी हर अहसास तुम्हारा , मुबारक तुमको


बरसती मिले खुशियाँ तुझे तेरे आंगन में सदा

महकती मुस्कुराती चांदनी सदा मुबारक तुमको


दीपक जलता रहे तुलसी के तले अरमान भरा 

ये रोशन चरागात ओ आफ़ताब मुबारक तुमको ." 
--विजयलक्ष्मी 

Wednesday 19 March 2014

" आफ़ताब भी मांगे है उसी से ठौर भी अपना "



हम धरती गगन है देख लो वजूद अपना ,

क्षितिज से मिलन का खूबसूरत सा सपना.


जुदा कब मिलकर हुए यही रहनुमाई बहुत 

देह की काँचुली से दूर रूहानी सफर अपना .

समन्दर खारा सा मगर कशिश उसमे बहुत 

लहर-लहर पंख लगाये बैठ संवरता सपना .

चंदा पनाह मांगे चांदनी अठखेलियाँ करती 

आफ़ताब भी मांगे है उसी से ठौर भी अपना 
----विजयलक्ष्मी

Saturday 15 March 2014

बलिदान का पत्थर ..देवीय शक्ति नश्वर .. मैं क्या हूँ ..?"


जानते हो 
अगर 
औरत स्वार्थी होती ...तो 
अपने तनुज को सत्ता न देती ..
फिर भी ..

लोग चिल्लाये सुबह से साँझ तक 

महिला दिवस ..मुबारक 
महिलाओं को आजादी मिलने चाहिए 
महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए 
महिलाये पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला रही हैं 
महिला सम्मान के चर्चे होंगे 
अखबार में पुराने कुछ किस्से खर्चे होंगे 
अख़बार पाट दिए जायेंगे ..महिला सशक्तिकरण के नाम 
सुबह से महिला के नाम का दीप जलेगा 
दीप जलता है सेमिनारों में
नुक्कड़ पर चर्चा में
चाय के साथ चर्चा में
नेताजी के भाषण में
सडकों पर इसतरह जैसे राशन की दूकान पर घासलेट मुफ्त में बंट रहा हो
मुफ्तखोरी ..कितनी बुरी बात हैं न
ये औरते जान खाती रहती है
कुछ काम नहीं होता सिवाय पैसे मांगने के
अरे भीख मनगों के घर की है न ..कुछ लाती तो क्या ..
" उलटे काम की काज की ढाई सेर अनाज की "
मुस्टडी कही की पड़ी पड़ी खाती है ..
काम इसका बाप करेगा क्या ...कैसे करमजली किस्मत में धरी गयी
इसे मौत ही आ जाये तो अच्छा .
नीच खानदान की है ..जबान तो देखो इसकी गज भर लम्बी है पूरी
एक कोने से आवाज आई ...इसकी ख़ूबसूरती रख के चाटू क्या
कितने गिरे हुए खानदान की ..
कहीं मरखप जाती तो अच्छा ..
जी हाँ ...यही हैं महिला दिवस की चर्चा का सच
काला स्याह ,,औरत की जिन्दगी का एक पहलू
..
जी हाँ ..आज की औरत ..सुबह साहब ने भाषण दिया था आरक्षण का
दो दिन भाद पत्नी मरी जहर भक्षण से
दीप जलाने वाले घर बहु जलकर मरे अभी हफ्ता ही तो हुआ था
जिसने औरत की आजादी की मांग की थी
शाम को बीवी की पिटाई हुयी बहुत बोलती हैं ..
दिनभर काय काय ..जुबाँ चलती है कैंची की तरह ..
..
एक सच ये भी ..
जिसकी बेटी मरी थी महिना भर पहले दूसरी बिटिया की शादी उसी दामाद तय करदी
उम्र में अट्ठारह बरस की ही छोट बड़ाई है
छोडो न औरत की जात है ..क्या फर्क पड़ता है मरद बुढ्ढा नहीं होता
अरे दो जून की रोटी नसीब होगी न बहुत है
सुना है धोती भी अपने घर से ही ला रहे हैं .. अरे किस्मत खुल गयी बुधिया की
..
वाह री औरत ..तूने पूरी कायनात का भ्रमण कर लिया ..
बेटी बनकर , ,
बहन बनकर
पत्नी बनकर
माँ बनकर
प्रेयसी बनकर
आजादी ,आरक्षण ,स्वाभिमान ,कानूनी संरक्षण ,,
सब कुछ हासिल करके भी कुछ हासिल नहीं ..

क्यूंकि तुझे सोचने का भी हक नहीं ..
जो कह सके हाँ ..मैं औरत हूँ ,,और गर्वित हूँ औरत होने पर ,,
कोई अन्तरिक्ष घुमे और गगन को चूमे ..
बोझ उठाले चारे पूरे देश का
मैं ही थी दुर्गा ...सीता सावित्री ..गार्गी
जीजाबाई ..या .लक्ष्मीबाई मैं ही हूँ अम्ब भवानी
मैं ही हूँ जिसे देवों ने पूजा
मैं ही हूँ ...गंगा की अविरल धारा
मैं ही हूँ सृजन की शक्ति
मैं ही हूँ वात्सल्य की धारा त्याग की मूर्ति
बलिदान का पत्थर ..देवीय शक्ति नश्वर ..
मैं क्या हूँ ..
क्या कोई वजूद है मेरा ..
मैं सिर्फ एक मुलम्मा हूँ ..
एक ऐसे मोम का टुकड़ा ..
जिसके पास सारे नाम के हैं सिवाय एक हक के ..
सर झुककर हाँ में हाँ मिलाना
इल्जाम भी सहने और बोलना, पाप है जिसके लिए .-- विजयलक्ष्मी 

".कीमत हमारी ...बस, तुम्हारा ईमान है,"

आम आदमी आम नहीं रहा ख़ास हो गया ,
नाराजगी का हक जनता को था आजतक 
देखो पत्रकारिता से खास भी नाराज हो गया 
चढाने लगा है गुल श्रद्धांजलि के खुद भी ..
किसी हम जैसे ने कहा तो ...नाराज हो गया 
दोस्ती का चस्का खत्म हुआ लगता है आजकल 
खुद को देखता नहीं ,गिरेबाँ में अपने झांकना नागँवार हो गया 
रंग ए वफा तो देखिये.... खर्चा ए चर्चा भी दुश्वार हो गया 
जेल की धमकी अजी देते किसे हो ,,
हम तो बदनाम है देश निकले के नाम पर .
बिके हुए लोग बिकी हुयी कलम ..जो खुद बिक गये उन्हें भी आती नही शर्म
माना, ईमान पर तेरे नाम के छींटे हैं ,,,लेकिन छोड़ा तो नहीं करना अपना कर्म
हम संशय में नहीं जिन्दा ...और उबरे भी नहीं है
ये अलग बात है ..तुमसे मिलते भी नहीं हैं ..
किसी साडी किसी बोतल में बिकेंगे नहीं हम .".कीमत हमारी ...बस, तुम्हारा ईमान है,"
लो ,खरीद डालो .... भरे बाजार में खड़े हैं .-- विजयलक्ष्मी

Friday 14 March 2014

"..चलते रहे कदम दर कदम "





मौसम को खबर न देना हमारी पलको की नमी की ,


दिखाने दो तेवर , शिकायत भी नहीं धुप की कमी की .


-- विजयलक्ष्मी



लिखकर लिखूं क्या मेरे शब्द तो पैबंद भी नहीं है ,


खुदा का नाम लिया उन्ही से जो पाबन्द भी नहीं हैं .


- विजयलक्ष्मी



दुश्वारियों का क्या राह में खड़ी मिलती रही सदा ,

मतवाले से हम भी ..चलते रहे कदम दर कदम ,- विजयलक्ष्मी

नागरिको से एक अपील .---


नागरिको से एक अपील .---

भगोड़े नेताओ को न चुने ..जिनके पिताजी अपने वंश की सिफारिश टिकट के लिए कर रहे हैं उनका चुनाव तो और भी अधिक खतरनाक और घातक साबित हो सकता है ...फिल्म अथवा क्रिकेट के आधार पर सस्ती लोकप्रियता भुनाने वालों को करारा जवाब दें .... जिस भी व्यक्ति अथवा पार्टी का चुनाव करे उसकी नैतिकता और उसके विकास कार्यों पर आधारित हो ....एसा न हो हमारी हर एक वोट देश को एक पायदान और नीचे पहुंचा दे .--- एक नागरिक ( विजयलक्ष्मी )

Wednesday 12 March 2014

" अजब रीत जिला-बदर था वही "

"इक दीप जलाया है इंतजार का !
होगी सहर वतन में एतबार का !!


कीचड़ भरी राहे मेरे ही गाँव की !
होगा कभी मौसम खुशगंवार सा !!


आशा-दीप यूँही बुझता नहीं देखो !
पतझड़ बाद ही मौसम बहार का !!


गुमे दलाल कमिशन की ओट में !
भूखा मरा वो रोटी का हकदार था !!


हमने देखा अँधेरा उसी के घर में !
जो करता दीपकों का व्यापार था !!


क्यूँ नफरत बनी उसी की खातिर !
जिसे बस दुआओं से सरोकार था !!


अजब रीत जिला-बदर था वही !
खुद जो कानून का ही पहरेदार था!!"- विजयलक्ष्मी

" यूँ तो मुझे इंकलाबी गीत नहीं आता ,"

यूँ तो मुझे इंकलाबी गीत नहीं आता ,
कहाँ से कैसे आएगा ... कौन सिखाएगा ...ये भी नहीं मालूम ...
रक्त का खौलना ,आग का लगना दिल में ..देखा नहीं कभी 
आसमान से गिरता हुआ बरसात का जल देखा है ...

गिरकर छितराए हुए टुकड़ों को देखा है कभी
महसूस किया है लहू का सरसराना ...झन्नाटे की रफ्तार से ,
काप उठती है काया जब ...और आंख से गिरता है गर्म पानी का सोता निकलकर 
एक हूक जो सुनी नहीं जाती कानों से ..किन्तु ...तपा देती है कपाल को
और ...और ..
जैसे बह उठती है इक नदी सी आप्लावित हो..
जब जब राष्ट्र विरोधी उठाती है आवाजे ..
और सरसराहट बदलने लगती है ..सुनामी की मानिंद दिल औ दिमाग पर
चल पड़ने को कहता है समय पुकार कर ,,
चूड़ियों की खनखनाहट सुनती है सत्ताधारियों के हाथ में
और मन उन्मादित सा लोकतंत्र की सोयी जनता को ललकार उठता है ,
बिके वोट गर्त में गिरा देते हैं ...हमारे पौरुष को
लज्जित होता है हर मस्तक ..जब सीमा पर मस्तक कटता है ..
ले कृपाण क्यूँ न हलाक कर दिया जाये दुश्मन के सर को ..
क्यूँ न उतारा कृपाण ,खंजर या चाकू ...जो चीरकर सीना हर दाग धो दे ईमान का ..
सने हाथ लहू से अच्छे नहीं लगे यूँ तो कभी ..किन्तु
सीना दुश्मन का हो तो क्यूँ न रंग होली का बनाकर लहू की होली खेल ली जाये ..
गर्वित हो धरा ..क्यूँ न जन्मदायिनी भारत माँ की पिपासा भी शांत की जाए,
क्रांति भी भ्रान्ति ही न हो ..बस खौफ इसी का है ..
न हो फिर कोई जैचंद बीच में आ जाये ,
और फिर पृथ्वीराज को कैद हो ,,
विकास की उठती लहर न थम जाये किसी बिके जमीर के हाथों ..
आओ ,,सम्भलो ..वोट की तगड़ी चोट हो ,
इसबार रूपये साड़ी शराब के बदले न बिकती वोट हो .-- विजयलक्ष्मी

" खुद भी कानून का ही पहरेदार था "

इक दीप जलाया है इंतजार का ,
होगी सहर वतन में एतबार का ,

कीचड़ भरी राहे मेरे ही गाँव की
होगा कभी मौसम खुशगंवार सा,

आशा-दीप यूँही बुझता नहीं देखो
पतझड़ बाद ही मौसम बहार का ,

गुमे दलाल कमिशन की ओट में
भूखा मरा वो रोटी का हकदार था ,

हमने देखा अँधेरा उसी के घर में
जो करता दीपकों का व्यापार था,

क्यूँ नफरत बनी उसी की खातिर
जिसे बस दुआओं से सरोकार था

अजब रीत जिला-बदर था वही
खुद भी कानून का ही पहरेदार था .- विजयलक्ष्मी

Tuesday 11 March 2014

" हार-जीत का खेल नहीं अब क्या खोना क्या पाना है"

जीवन राग बजे रुनझुन पतझड़-वसंत तो आना है ,
चलता रहता समय का पहिया ,सबको ही जाना है .

कुछ पल का हंसना हंसाना , कुछ पल रोना गाना है 
जीवनमरण ये खेल अनूठा किसने भला पहचाना है

राग-द्वेष खेला पलभर का समय तो आना जाना है 
हार-जीत का खेल नहीं अब क्या खोना क्या पाना है

सुन चमक चांदनी धूप सुनहली मेरे आंगन आना है
कोई अँधेरा बचे न बाकी सबकुछ रोशन कर जाना है -- विजयलक्ष्मी

हे नारी तू अवगुणों का भंडार है ,

नारी कारण और निवारण जीवन के हर रूप जीती है .नारी अच्छा और बुरा चरित्र ....किन्तु क्या अकेली ही सबकुछ कर सकती है ..बिना कारण ही ...बिना किसी हसक्षेप के .....क्या पुरुष की कूटनीति कुछ भी नहीं है .....बहुपत्नी प्रथा किसने शुरू की ..क्या स्त्रियों ने ....मंथरा ने जो किया क्या दशरथ के वचन जिम्मेदार नहीं थे ... ?

हे नारी तू अवगुणों का भंडार है ,


तेरा त्रियाचरित्र अपरम्पार है 
सुना है सच को झूठ बनाने मे
 तेरा ही एकाधिकार है 
पुरुष बहुत भोले सीधे-साधे ...बस औरत ही गुनहगार है
हर प्रपंच रचने में माहिर ..हे प्रपंचा ,प्रपंचधारिणी ..
तू कलयुगी व्यभिचार है ,
तू अकारथ ..ज्ञानवती होकर भी समाज को कलुषित करती निन्दागार है
हे नारी ..तेरे त्राण जीवन का अपकार है ,तू ही पापिनी तू निशचिन ..
तुझसे बिगड़ा ये संसार है ,
..
जो पेट चीर देती जन्म सहती व्यथा ,
नहीं गाती कथा ...हुआ अब जीवन वृथा
दंश देता रहा सदा .. जब बेच तन पाली ममता
बड़ा हुआ जब कहता है कुलटा ..
वाह री नारी ...तू अकल्याणी..विद्रोहिणी ,
तू ही निर्मम तू ही निर्लज्ज ..
तू ही पाषाण ..तोड़ी थी आन ..
नहीं था ..निभाने में परम्परा होगी कलंकिता
राजा की पटरानी या थी नौकरानी ..
घर से निकाली ..पति ने त्यागी ..
हे नारी तू कैसी हतभागी ..
--लीलाधारी की लीला ने बस नारी को लील लिया ..
बढकर लेखनी ने भी ...औरत को जलील किया
क्या सत्य उजागर हो पाया ...
जो पुरुष ने चाह ...वोही सदा से सिद्ध किया .-- विजयलक्ष्मी

Monday 10 March 2014

" लहू उछाल चिरैया रंगती आसमान को."

कोई तलब करे है परवाज उड़ान को ,

पिंजरे में बुलबुल देखती बस मचान को,


पंखो को नोचकर सैयाद खुश हुआ 


लहू उछाल चिरैया रंगती आसमान को.- विजयलक्ष्मी






कुछ जिन्दा हुए से पल मरते हुए अहसास ,

तमाम शाम ओ गम को भरते हुए उजास ,


भूलता नहीं कोई और भूलना भी भूल जाये..


यादों के परचम क्यूँ लहराए आम औ ख़ास .- विजयलक्ष्मी






लालच के वशीभूत माँ को नोचते मिले ,

गिरे जमीर के बेटे माँ को बेचते मिले 


इस चमन में अब गुल नहीं महकता 


बसंत में गुलदान कागज के गुल सजाते मिले 

महक खोयी यथार्थ की जमीं दिखावे में 


चली राहे अनजान मंजिल के बहकावे में 


रौनक ए अहसास वक्ती सरोकार रह गया 


लिए मन में मेल मगर चेहरे को छलकाते मिले .- विजयलक्ष्मी 

" न होकर भी होना तेरा ,भला ये कैसी याद है "

उदासी के तेल से याद का इक दीपक जला लिया जाये ,

जलती हुयी लौ को देखकर क्यूँ न मुस्कुरा लिया जाये .- विजयलक्ष्मी




कोई भी दोस्त कभी यूँही बे-वफा नहीं होता ,
जाने वफा का कौनसा वादा यूँ निभाया होगा .--विजयलक्ष्मी



बेजुबाँ अहसास बोलते नहीं ,किसी और का ढंग तौलते नहीं ,

जिन्दगी कैसी भी राह चले चलते हैं संग ही कभी डोलते नहीं .- विजयलक्ष्मी





नगमा औ साज भी सजता है अहसास के साथ ,

जिन्दगी का हर लम्हा रंगता है अहसास के साथ 


यादे किसको कहूं कैसे याद दिलाऊँ याद को भी ...


महफिलों में यादे के दीप जलते है अहसास के साथ .-- विजयलक्ष्मी





किसी शबनमी शरारे की शरारत भी याद है ,

भूली हुयी सी दुनिया की दस्तक भी याद है ,


बीतते हुए पलो का घुलना लहू सा मुझमे ...


न होकर भी होना तेरा ,भला ये कैसी याद है.- विजयलक्ष्मी