श्री कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाई ,,
जपे राधा जपे मीरा ,,दिवानी वो कन्हैया की ,,
कभी यमुना किनारे पर कभी डारन बसैया भी ,,
कभी गोपी रिझाये वो, कभी ममता सताये वो ,,
गजब धेनू चरैया वो ,,वही मुरूली बजैया भी || ---- विजयलक्ष्मी
कभी यमुना किनारे पर कभी डारन बसैया भी ,,
कभी गोपी रिझाये वो, कभी ममता सताये वो ,,
गजब धेनू चरैया वो ,,वही मुरूली बजैया भी || ---- विजयलक्ष्मी
काश ,
तनुज दनुज न होते ,
माँ के यूँ आंसू न बहते ...
जो बुढा गयी लहू पिलाकर जतन से,
उसकी खातिर आश्रम न होते,
पिता ने तो कभी डाटा भी होगा..
सच कहना ,,माँ ने कब ममता गिनाई
खेत गाँव घर बेच शहर में रहता सपूत
माँ के अहसास समझता गर..न गंगाजल काला होता
न यमुना बदबू फैलाती ,,
गाँव के तालाब में भी अब मछलियाँ नहीं तैरती ,
कूड़े के ढेर सी मानसिकता...माँ को तो मुकदमा करना चाहिए ,
कीमत वसूलनी चाहिए...सन्तान के स्वार्थ से,
तनुज दनुज न होते
माँ के यूँ आंसू न बहते ...
जो बुढा गयी लहू पिलाकर जतन से,
उसकी खातिर आश्रम न होते,
तनुज दनुज न होते ,
माँ के यूँ आंसू न बहते ...
जो बुढा गयी लहू पिलाकर जतन से,
उसकी खातिर आश्रम न होते,
पिता ने तो कभी डाटा भी होगा..
सच कहना ,,माँ ने कब ममता गिनाई
खेत गाँव घर बेच शहर में रहता सपूत
माँ के अहसास समझता गर..न गंगाजल काला होता
न यमुना बदबू फैलाती ,,
गाँव के तालाब में भी अब मछलियाँ नहीं तैरती ,
कूड़े के ढेर सी मानसिकता...माँ को तो मुकदमा करना चाहिए ,
कीमत वसूलनी चाहिए...सन्तान के स्वार्थ से,
तनुज दनुज न होते
माँ के यूँ आंसू न बहते ...
जो बुढा गयी लहू पिलाकर जतन से,
उसकी खातिर आश्रम न होते,
----- विजयलक्ष्मी
नहीं चाहिए तुम्हारी झूठी सांत्वना
नहीं चाहिए तुम्हारे धन की गठरी
नहीं चाहिए तुम्हारी सियासत
न तुम्हारी कमाई अपनी विरासत
तुम्हे जो चहिये ले जाओ ..बहुत प्रेम है निस्वार्थ भाव लिए
मैं नदी हूँ ...बहती हूँ किनारों की मर्यादा में
मैं तडपकर भी अपने जल को गरमाती नहीं हूँ
मैं किसी को प्यासा कब रहने देती हूँ
जब जिसने चाह स्नान किया दिखावे का तप और दान किया
स्वार्थ पूर्ति हित झगड़े किये तलवार निकाली
देश की सीमाओं की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
तट से बंधीं मैं सरहद की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
मुझे खूंटे से बाँधने की चाहत लिए तुम ..नाव लिए उतर पड़े
हर बार मेरे मुहाने आकर नहर नहर कर मेरे टुकड़े किये
शव भी जलाये तुमने ...घरौंदे भी मिटाए
मैं चुप थी हंसती रही ...तुम्हारी ख़ुशी की खातिर
चलती रही खामोश हर दर्द को खुद में समेटकर
तुमने स्नान ही किया होता तो अच्छा होता ,, लेकिन
तुमने मुझमे छोड़ा ...तन का मैंल ...मन का छोड़ते तो अच्छा होता
तुमने जोड़ा लालच अगले जन्म का ..इस जन्म को पवित्रता से जोड़ते तो अच्छा होता
तुमने छोड़े तन के मैले कपड़े तट पर मेंरे ..
तुम मन को शुद्ध करते मुझमे नहाकर तो अच्छा होता
मैं इंतजार में रही ...तुम समझोगे कभी तो ..
तुम चुप रहे महसूस करके भी ..मैं भी खामोश बहती थी
पूछोगे कभी हाल ...दर्द को समझोगे मेरे
झांक सकोगे रूह में ,,बाँट सकोगे स्नेह को ,,
लेकिन नहीं ..तुम अपनी धुन में.. अपने विचार ..अपनी मनमानी
जानते हो ये सत्य भी मरने के बाद नहीं लौटूंगी कभी ..
क्या इसीलिए जतन से मार रहे हो मुझे !
कर रहे हो मुझे गधला ..भर रहे हो अनाचार की परिभाषा
खत्म कर रहे हो जिन्दगी की आशा
जिन्दा रहने के मेरे प्रयास असफल कर रहे हो तुम
याद रखना ..हर गंदगी मेरी आयु कम कर रही है वक्त से पहले
मैं गंगा हूँ ...गंगा ही रहूंगी अंतिम साँस तक
तुम दनुज हो जाओ तो... तुम जानो
नहीं चाहिए तुम्हारे धन की गठरी
नहीं चाहिए तुम्हारी सियासत
न तुम्हारी कमाई अपनी विरासत
तुम्हे जो चहिये ले जाओ ..बहुत प्रेम है निस्वार्थ भाव लिए
मैं नदी हूँ ...बहती हूँ किनारों की मर्यादा में
मैं तडपकर भी अपने जल को गरमाती नहीं हूँ
मैं किसी को प्यासा कब रहने देती हूँ
जब जिसने चाह स्नान किया दिखावे का तप और दान किया
स्वार्थ पूर्ति हित झगड़े किये तलवार निकाली
देश की सीमाओं की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
तट से बंधीं मैं सरहद की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
मुझे खूंटे से बाँधने की चाहत लिए तुम ..नाव लिए उतर पड़े
हर बार मेरे मुहाने आकर नहर नहर कर मेरे टुकड़े किये
शव भी जलाये तुमने ...घरौंदे भी मिटाए
मैं चुप थी हंसती रही ...तुम्हारी ख़ुशी की खातिर
चलती रही खामोश हर दर्द को खुद में समेटकर
तुमने स्नान ही किया होता तो अच्छा होता ,, लेकिन
तुमने मुझमे छोड़ा ...तन का मैंल ...मन का छोड़ते तो अच्छा होता
तुमने जोड़ा लालच अगले जन्म का ..इस जन्म को पवित्रता से जोड़ते तो अच्छा होता
तुमने छोड़े तन के मैले कपड़े तट पर मेंरे ..
तुम मन को शुद्ध करते मुझमे नहाकर तो अच्छा होता
मैं इंतजार में रही ...तुम समझोगे कभी तो ..
तुम चुप रहे महसूस करके भी ..मैं भी खामोश बहती थी
पूछोगे कभी हाल ...दर्द को समझोगे मेरे
झांक सकोगे रूह में ,,बाँट सकोगे स्नेह को ,,
लेकिन नहीं ..तुम अपनी धुन में.. अपने विचार ..अपनी मनमानी
जानते हो ये सत्य भी मरने के बाद नहीं लौटूंगी कभी ..
क्या इसीलिए जतन से मार रहे हो मुझे !
कर रहे हो मुझे गधला ..भर रहे हो अनाचार की परिभाषा
खत्म कर रहे हो जिन्दगी की आशा
जिन्दा रहने के मेरे प्रयास असफल कर रहे हो तुम
याद रखना ..हर गंदगी मेरी आयु कम कर रही है वक्त से पहले
मैं गंगा हूँ ...गंगा ही रहूंगी अंतिम साँस तक
तुम दनुज हो जाओ तो... तुम जानो
-------- विजयलक्ष्मी
शब्दों को रहने दो ,
शब्दों में कुछ नहीं,
छल कर सकते हैं
गर जीना है जिन्दगी की तरह ,
अहसास को जियो जिन्दगी की तरह .
शब्दों में कुछ नहीं,
छल कर सकते हैं
गर जीना है जिन्दगी की तरह ,
अहसास को जियो जिन्दगी की तरह .
------ विजयलक्ष्मी
जिसकी नजर में है उसीसे नजर छिपाए भी तो भला कैसे,
झूठ है सच गुनाह या पाकीजगी बताये भी तो भला कैसे ,
झूठ है सच गुनाह या पाकीजगी बताये भी तो भला कैसे ,
------------ विजयलक्ष्मी
उफ्फ ! ये बिजली के बिल और नेट के किस्से ,
तन्हाई की बात और अँधेरे के किस्से ,
मुई, जब देखो चली जाती है छोडकर ,
समझती नहीं ,कितनी जिंदगी ,..
जिंदगी और मौत के बीच लटक जाती है
अस्पतालों में ,स्कूलों में ,मेट्रो स्टेशन पर ..
रेलवे स्टेशन पर ....कभी कभी तो जंगल के बीच वीराने में ...
और बिल के तो क्या कहने ...
बिजली जले न जले देना जरूरी है ,.
कहो न कोई सरकार से कभी तो माफीनामा किया करे ...
राहत राशन पर ही है .., बिना राशन वालों को भी दिया करे ..
हमारी सुनती कहाँ है ..
लगता है धरना देना पडेगा
अन्ना की तरह या बाबा की तरह ..
कल की बात लो ...पूरे पांच घंटे सर्वर गायब ..
स्वतंत्रता का जश्न और ....उसपे सब गायब ...
गजब ...किस्से कहानी ,फिर मेंहमानों की लम्बी लिस्ट ...
और जिंदगी की कहानी का ट्विस्ट ...
पर वो भी अच्छा है ...कभी कभी होना चाहिए ..
पता लगता है , हम कहाँ है ...
जिन्दा है या मर गए है ,
इसके लिए तो शुक्रिया कहना ही होगा..
अभी हम जी रहे है...सांसे है बकाया कहीं कहीं पर.
तन्हाई की बात और अँधेरे के किस्से ,
मुई, जब देखो चली जाती है छोडकर ,
समझती नहीं ,कितनी जिंदगी ,..
जिंदगी और मौत के बीच लटक जाती है
अस्पतालों में ,स्कूलों में ,मेट्रो स्टेशन पर ..
रेलवे स्टेशन पर ....कभी कभी तो जंगल के बीच वीराने में ...
और बिल के तो क्या कहने ...
बिजली जले न जले देना जरूरी है ,.
कहो न कोई सरकार से कभी तो माफीनामा किया करे ...
राहत राशन पर ही है .., बिना राशन वालों को भी दिया करे ..
हमारी सुनती कहाँ है ..
लगता है धरना देना पडेगा
अन्ना की तरह या बाबा की तरह ..
कल की बात लो ...पूरे पांच घंटे सर्वर गायब ..
स्वतंत्रता का जश्न और ....उसपे सब गायब ...
गजब ...किस्से कहानी ,फिर मेंहमानों की लम्बी लिस्ट ...
और जिंदगी की कहानी का ट्विस्ट ...
पर वो भी अच्छा है ...कभी कभी होना चाहिए ..
पता लगता है , हम कहाँ है ...
जिन्दा है या मर गए है ,
इसके लिए तो शुक्रिया कहना ही होगा..
अभी हम जी रहे है...सांसे है बकाया कहीं कहीं पर.
-------- विजयलक्ष्मी
.
रखकर तस्वीर गुनगुना लो न हसीन यादो को ,
गुल बन खिल उठोगे जीकर उन अहसासों को
गुल बन खिल उठोगे जीकर उन अहसासों को
------ विजयलक्ष्मी
.
चंद चांदी के सिक्कों में आजकल ईमान बिक रहा है ,
हमे दरकार वफा की रहे भला क्यूँ जब प्यार बिक रहा है.
आकर हर लम्हा मेरा इम्तेहान सा लेते है क्यूँ जहां वाले
बहुत रुसवा हुए ,बेमोल बिक गये थे अब दाम लग रहा है
हमने तो नहीं माँगा था खुदा से ईमान से अलग कुछ भी
है किसका जमीर जिन्दा ईमान भी कोने में सिसक रहा है
गुनाह कर बैठे है लगने लगा हमको भी इस मुकाम पर
न रहमत न तमन्ना ए जिन्दगी लूटलो ये जहां लुट रहा है .
दरयाफ्त नहीं ए जिन्दगी हमे तमन्नाओ को मार डालेंगे
खुशियों के मेले मुबारक,देखो एक ख्वाब फांसी लटक रहा है.
------ विजयलक्ष्मी
.
देह नौचती आँखों से खरौंची गयी आत्मा लिए
चलती हूँ जिन्दगी की बीहड़ गली में
नंगे पांव तीक्ष्ण धुप से जलती ताम्बई देह लिए
कर्म पथ पर चलती जा रही हूँ ..
नयन पट पर ख्वाब सजाऊँ भी गर ,,किसके लिए
दर्द के संग भी मुस्कुराये जा रही हूँ .
हमे मेहनत से डर नहीं लगता साहिब
डर होता है ...मान का और इल्जाम का
चलती हूँ जिन्दगी की बीहड़ गली में
नंगे पांव तीक्ष्ण धुप से जलती ताम्बई देह लिए
कर्म पथ पर चलती जा रही हूँ ..
नयन पट पर ख्वाब सजाऊँ भी गर ,,किसके लिए
दर्द के संग भी मुस्कुराये जा रही हूँ .
हमे मेहनत से डर नहीं लगता साहिब
डर होता है ...मान का और इल्जाम का
--------- विजयलक्ष्मी
ईमान पर टिकी हो दुश्मनी दोस्ती पर भी भारी होती है ,
दिलों में झांकते नहीं कहते है दुश्मनी अच्छी नहीं होती हैं.
दिलों में झांकते नहीं कहते है दुश्मनी अच्छी नहीं होती हैं.
------- विजयलक्ष्मी
.
जो बिक जाये वो प्यार नहीं जो मिट जाये इकरार नहीं ,
मौत का परचम लहराए,जो रूह के घरौंदे का इसरार नहीं.
मौत का परचम लहराए,जो रूह के घरौंदे का इसरार नहीं.
------- विजयलक्ष्मी
.
काश ,झगड़ा नल और पानी का ही होता ,
ईमान और जान का नहीं ...
जिसे देना हो सरकार दे दे उसे वैसे भी बिकाऊँ सरकार का कोई कर भी क्या सकता है
राशन क्या सिंदूर भी बाँट दे तो भी क्या फर्क पड़ता है
उन्हें तो मौज और घोटालों की दरकार है
यहाँ वैसे भी भगत को आज तक शहीद घोषत न किया
आतंकियों के लिए जेल में बिरयानी की पूर्ती होती है
और फिर सरकार आतंकवाद को लेकर दिखावे के लिए रोती है ,,,
क्यूँ आते हो लौट कर और आवाज लगते हो उस छोर से
जिसे छीनकर और फिर उसपर दिखाकर खाने की आदत हो उसीके नाम पर अख़बार भी छाप लो
हमे भूख से मर जाने दो ..या राशन की लम्बी लाइन में गश खाकर गिर जाने दो
हमे अख़बार की खबर नहीं सच की राह पर शहादत का शौंक चर्राया है
पानी ...देदो नल को कहो बहे खूब जिसे दरकार हो उस तरफ ..
हमे नहीं पीना उस दरिया को जहाँ खारापन आ चुका हो
मरना ही लिखा है तो ईमान से तो मरे कम से कम ..
सनद रहेगा हर जलती मोमबत्ती की तरह ..
एक स्मारक बना लेना किसी कोने मे पूण्य तिथि मनाने के लिए
कलेंडर चस्पा देना लिखकर जन्मदिवस ..
साल में दो दिन बहुत होंगे ..माल्यार्पण के लिए हमारे
जनता तो इतने पर भी खुश है बहुत खुश .
लगाओ बोली और खरीद लो बिकाऊ माल को
वैसे भी पैसा गिर रहा है आजकल नेताओ के गिरते ईमान की तरह
ईमान और जान का नहीं ...
जिसे देना हो सरकार दे दे उसे वैसे भी बिकाऊँ सरकार का कोई कर भी क्या सकता है
राशन क्या सिंदूर भी बाँट दे तो भी क्या फर्क पड़ता है
उन्हें तो मौज और घोटालों की दरकार है
यहाँ वैसे भी भगत को आज तक शहीद घोषत न किया
आतंकियों के लिए जेल में बिरयानी की पूर्ती होती है
और फिर सरकार आतंकवाद को लेकर दिखावे के लिए रोती है ,,,
क्यूँ आते हो लौट कर और आवाज लगते हो उस छोर से
जिसे छीनकर और फिर उसपर दिखाकर खाने की आदत हो उसीके नाम पर अख़बार भी छाप लो
हमे भूख से मर जाने दो ..या राशन की लम्बी लाइन में गश खाकर गिर जाने दो
हमे अख़बार की खबर नहीं सच की राह पर शहादत का शौंक चर्राया है
पानी ...देदो नल को कहो बहे खूब जिसे दरकार हो उस तरफ ..
हमे नहीं पीना उस दरिया को जहाँ खारापन आ चुका हो
मरना ही लिखा है तो ईमान से तो मरे कम से कम ..
सनद रहेगा हर जलती मोमबत्ती की तरह ..
एक स्मारक बना लेना किसी कोने मे पूण्य तिथि मनाने के लिए
कलेंडर चस्पा देना लिखकर जन्मदिवस ..
साल में दो दिन बहुत होंगे ..माल्यार्पण के लिए हमारे
जनता तो इतने पर भी खुश है बहुत खुश .
लगाओ बोली और खरीद लो बिकाऊ माल को
वैसे भी पैसा गिर रहा है आजकल नेताओ के गिरते ईमान की तरह
------ विजयलक्ष्मी
दुनिया का हर रंग भाता है उन्हें, मेरे सिवा
दुनिया खूबसूरत लगती है बहुत होकर मुझसे जुदा
दुनिया खूबसूरत लगती है बहुत होकर मुझसे जुदा
------- विजयलक्ष्मी
ख़ामोशी जब चीखती है खामोश जुबाँ में ..
सच मानो.. शोर के भी होश उड़ जाते हैं
सच मानो.. शोर के भी होश उड़ जाते हैं
------ विजयलक्ष्मी
माना गुल गुलिस्ताँ में महकते है बसंत आने पर एक सच ये भी है कागज के फूल मुरझाएंगे नहीं
------- विजयलक्ष्मी
नन्दन पढ़ी है कभी अपने ..आज बहुत याद आई वो किताब बचपन में बहुत पढ़ी है और एक चम्पक भी जिसमे जितनी भी कहानी होती थी चम्पक वन की ही हुआ करती थी ...जिसमे शेर शेरनी , गीदड़ सियार बन्दर लंगूर गधे खच्चर ऊंट आड़ी की कहानी ही बहुतायत से लिखी होती थी ..कभी कभी चोरी से भी पढ़ लेते थे ..उसी बचपन की तरफ ले चलती हूँ और सुनाती हूँ एक कलयुगी जंगल की कहानी ...हो सकता है कुछ अजीब सी लगे क्यूंकि कहानी लिखने की आदत नहीं है सिर्फ एक प्रयासभर है ये ..
एक घना जंगल था जिसमे एक शेर रहता था ,निरंकुश शासन था उसका |उससे सभी बचकर चलते और सभी उसके सामने सर झुकाते थे ...मजाल कोई कान भी फड़का दे भला ..एक राजा का जैसा खौफ होना चाहिए था ठीक वैसा ही था
उसी जंगल में एक शेरनी भी रहती थी |थी तो वह भी शेरनी ही तो उसके जलवे कम कैसे होते भला ...सम्भवतया उसमे शेरनी वाले यथोचित सभी गुण मौजूद थे .. और इन्ही गुणों के कारण उस पर एक दिन शेर की नजर पड़ गयी ...सीधे बात कैसे करे आखिर शेरनी जो ठहरी ...न जाने कब किस बात पर बिगड़ जाये ...बहुत सोच समझकर एक जाल फैलाया ..और राजा कहे भी तो कैसे .... या कहूं .... दिल से हारे तो सब हारे वाली बात चरितार्थ हुयी ..|
वही एक मादा सियार भी रहा करती थी ..सच कहूं तो रहती तो वो शेर के जंगल में ही थी लेकिन कभी उसकी हिम्मत न हुयी थी शेर से आँख मिलाने की ..जब से शेर को शेरनी भायी और ये भनक उस सियारिन को लगी वो तुडफुडाने लगी ...उधर शेरनी ने अनेक बार पूछा लेकिन शेर तो अपनी धुन में था जैसे उसे कुछ समझ नहीं आया था उसे तो शेरनी की दरकार हुयी तो बस हुयी ...धीरे धीरे शेरनी को बात समझ आई और वो शेर को बहुत प्यार करने लगी ...सम्भवतया खुद से भी ज्यादा इसी बीच शेर के भेजे विवाह सम्बन्ध को स्वीकार कर दोनों ने विवाह भी कर लिया ...और मानव जाति की तर्ज पर करवाचौथ का व्रत भी रखा ...और ख़ुशी से रहने लगे ..लेकिन विधना का लेखा कहूं या शेरनी का अँधा विश्वास ...या फिर सियारनी की चाल ..उसने शेर पर डोरे डालने शुरू कर दिए क्युंकी उसे शेर के भीतर उठते मुहब्बत के जज्बात नजर आने लगे ...अब शुरू हुयी उसकी बेंतेहा मुहब्बत दिखाने की कवायत शुरू ...शुरूआती दौर में कुछ अजीब सा जानकर शेरनी ने शेर को आगह भी किया ...किन्तु शेर ने ये कहकर टाल दिया शेर शेरनी से ही प्रेम करता है चुहिया के च्यवनप्राश खाने से वो शेरनी नहीं बन जाएगी ...वंशबेल तो शेरनी से ही बढनी है ...,उस सियारिन ने खुद को अलग अलग रंगों में रंगना शुरू किया और शेर के सामने जाकर प्रणय नृत्य किया ...अब प्रेम का आनन्द चख चुका शेर ये भूलने लगा की वो शेर है और उसके सामने ये प्रणय नृत्य करने वाली कौन है
सियारनी ने शेरनी से दोस्ती की उनकी संगत करने लगी और धीरे उनके घर में सेंध लगाने में आखिरकार कामयाब हो ही गयी ...वो बस एक ही काम करती है आजकल शेर को रिझाने का और शेर उसपर रीझने का ...किन्तु क्या ये सम्भव है ...शेर और सियारनी लगता तो कुछ ऐसा ही है जिसे शेर ने कभी चुहिया कहकर समझाया था उसने शेरनी को हरकते दिखानी शरू की और शेर को मोहजाल में .............|अब उसे शेरनी से कैसी दरकार मतलब के लिए बढ़ाई गयी दोस्ती अब दुश्मनी में तब्दील हो गयी अब दोस्त नहीं दुश्मन समझती है शेरनी को और एक लंगूर को कहा जाओ शेरनी पर नजर रखो ..उस लंगूर ने भी उसका कहना माना और अक्सर शेरनी के घर आने लगा ..आता तो चोरी से ही था किन्तु पैरों के निशान छोड़ता था शिनाख्त के लिए |
उस सियारिन को चटाया गया च्यवनप्राश ही उसे उकसाने लगा और एक दिन वह सच में शेरनी के रंग में रंग कर शेर के सम्मुख आ खड़ी हुयी ..शेनी के समझाने का असर अब क्यूँ और किस पर ..अब तो शेर को सियारनी इतनी अच्छी लगने लगी कि शेरनी को समझाने लगा उसे भी अपने घर में ले आये ...शेरनी तो शेरनी है जौहर कर सकती है सदमे में मर सकती है ....वाह तो रखैल बन कर भी रहने को तैयार है ..यदि ये भ्रमजाल है ....तो ऐसा व्यवहार क्यूँ किया सियारनी ने ... अगर सच है तो .. वो उस सियारनी के साथ चला जाये ....छोड़ दे उसे उसके हाल पर ...यद्यपि उसे मालूम है शेरनी उसके बिना मर जाएगी ...फिर भी उस सियारनी का फैलाया जाल मजबूत हुआ ...आज तक भी शेर उसे कहता है हिस्सेदारी को ...लेकिन शेरनी किसी के द्वारा मारा हुआ शिकार नहीं करती ..यद्यपि सियारनी ...शेरनी के मारे हुए शिकार पर ही जिन्दा रहती है और आज उसी के घर में बैठी है ....शेर भी शायद अब शेर नहीं रहा ...न जाने क्यूँ लगता है वो भी अब सियार होता जा रहा है शायद ....|सबकुछ बदल रहा है ...और जिन्दगी मौत की तरफ चल रही है शेरनी की ....शायद उसके बाद ही सम्भव हो सकेगा सियारनी और उस शेर का सम्पूर्ण मिलन ...कलयुग है ...किन्तु क्या ऐसा सम्भव है ...अगर वो सियारनी नहीं शेरनी है तो उसने पीछे से वार क्यूँ किये ...सामने आने से कतराती रही और पीठ पर छुरा क्यूँ घोपा ....क्यूँ लाग लपेट की बाते की ....बहुत सारे क्यूँ छिपे हैं और कलयुग की बेला चल रही है न जाने क्या हो जाये ..!.काश ....सबकुछ भ्रम ही हो शेरनी का और शेर फिर शेरनी के साथ जी सके पूरी एक खुशहाल जिन्दगी ...
क्यूँ दहकता है कोई किसी और के सूरज से भला ,
क्यूँ नहीं बनाता अपना अपना सूरज अलग से भला ,
क्यूँ छुरा लिए फिरते है दोस्त ही दोस्त की खातिर यहाँ
पीठपर क्यूँ ,नहीं भौकते उसे सीने पर करके वार भला
सच ही सुना अब ईमान बिक गया है इंसान का शायद
सोचते है अब ,कैसे बेचेंगे हम भी अपना जमीर भला . - विजयलक्ष्मी
उसी जंगल में एक शेरनी भी रहती थी |थी तो वह भी शेरनी ही तो उसके जलवे कम कैसे होते भला ...सम्भवतया उसमे शेरनी वाले यथोचित सभी गुण मौजूद थे .. और इन्ही गुणों के कारण उस पर एक दिन शेर की नजर पड़ गयी ...सीधे बात कैसे करे आखिर शेरनी जो ठहरी ...न जाने कब किस बात पर बिगड़ जाये ...बहुत सोच समझकर एक जाल फैलाया ..और राजा कहे भी तो कैसे .... या कहूं .... दिल से हारे तो सब हारे वाली बात चरितार्थ हुयी ..|
वही एक मादा सियार भी रहा करती थी ..सच कहूं तो रहती तो वो शेर के जंगल में ही थी लेकिन कभी उसकी हिम्मत न हुयी थी शेर से आँख मिलाने की ..जब से शेर को शेरनी भायी और ये भनक उस सियारिन को लगी वो तुडफुडाने लगी ...उधर शेरनी ने अनेक बार पूछा लेकिन शेर तो अपनी धुन में था जैसे उसे कुछ समझ नहीं आया था उसे तो शेरनी की दरकार हुयी तो बस हुयी ...धीरे धीरे शेरनी को बात समझ आई और वो शेर को बहुत प्यार करने लगी ...सम्भवतया खुद से भी ज्यादा इसी बीच शेर के भेजे विवाह सम्बन्ध को स्वीकार कर दोनों ने विवाह भी कर लिया ...और मानव जाति की तर्ज पर करवाचौथ का व्रत भी रखा ...और ख़ुशी से रहने लगे ..लेकिन विधना का लेखा कहूं या शेरनी का अँधा विश्वास ...या फिर सियारनी की चाल ..उसने शेर पर डोरे डालने शुरू कर दिए क्युंकी उसे शेर के भीतर उठते मुहब्बत के जज्बात नजर आने लगे ...अब शुरू हुयी उसकी बेंतेहा मुहब्बत दिखाने की कवायत शुरू ...शुरूआती दौर में कुछ अजीब सा जानकर शेरनी ने शेर को आगह भी किया ...किन्तु शेर ने ये कहकर टाल दिया शेर शेरनी से ही प्रेम करता है चुहिया के च्यवनप्राश खाने से वो शेरनी नहीं बन जाएगी ...वंशबेल तो शेरनी से ही बढनी है ...,उस सियारिन ने खुद को अलग अलग रंगों में रंगना शुरू किया और शेर के सामने जाकर प्रणय नृत्य किया ...अब प्रेम का आनन्द चख चुका शेर ये भूलने लगा की वो शेर है और उसके सामने ये प्रणय नृत्य करने वाली कौन है
सियारनी ने शेरनी से दोस्ती की उनकी संगत करने लगी और धीरे उनके घर में सेंध लगाने में आखिरकार कामयाब हो ही गयी ...वो बस एक ही काम करती है आजकल शेर को रिझाने का और शेर उसपर रीझने का ...किन्तु क्या ये सम्भव है ...शेर और सियारनी लगता तो कुछ ऐसा ही है जिसे शेर ने कभी चुहिया कहकर समझाया था उसने शेरनी को हरकते दिखानी शरू की और शेर को मोहजाल में .............|अब उसे शेरनी से कैसी दरकार मतलब के लिए बढ़ाई गयी दोस्ती अब दुश्मनी में तब्दील हो गयी अब दोस्त नहीं दुश्मन समझती है शेरनी को और एक लंगूर को कहा जाओ शेरनी पर नजर रखो ..उस लंगूर ने भी उसका कहना माना और अक्सर शेरनी के घर आने लगा ..आता तो चोरी से ही था किन्तु पैरों के निशान छोड़ता था शिनाख्त के लिए |
उस सियारिन को चटाया गया च्यवनप्राश ही उसे उकसाने लगा और एक दिन वह सच में शेरनी के रंग में रंग कर शेर के सम्मुख आ खड़ी हुयी ..शेनी के समझाने का असर अब क्यूँ और किस पर ..अब तो शेर को सियारनी इतनी अच्छी लगने लगी कि शेरनी को समझाने लगा उसे भी अपने घर में ले आये ...शेरनी तो शेरनी है जौहर कर सकती है सदमे में मर सकती है ....वाह तो रखैल बन कर भी रहने को तैयार है ..यदि ये भ्रमजाल है ....तो ऐसा व्यवहार क्यूँ किया सियारनी ने ... अगर सच है तो .. वो उस सियारनी के साथ चला जाये ....छोड़ दे उसे उसके हाल पर ...यद्यपि उसे मालूम है शेरनी उसके बिना मर जाएगी ...फिर भी उस सियारनी का फैलाया जाल मजबूत हुआ ...आज तक भी शेर उसे कहता है हिस्सेदारी को ...लेकिन शेरनी किसी के द्वारा मारा हुआ शिकार नहीं करती ..यद्यपि सियारनी ...शेरनी के मारे हुए शिकार पर ही जिन्दा रहती है और आज उसी के घर में बैठी है ....शेर भी शायद अब शेर नहीं रहा ...न जाने क्यूँ लगता है वो भी अब सियार होता जा रहा है शायद ....|सबकुछ बदल रहा है ...और जिन्दगी मौत की तरफ चल रही है शेरनी की ....शायद उसके बाद ही सम्भव हो सकेगा सियारनी और उस शेर का सम्पूर्ण मिलन ...कलयुग है ...किन्तु क्या ऐसा सम्भव है ...अगर वो सियारनी नहीं शेरनी है तो उसने पीछे से वार क्यूँ किये ...सामने आने से कतराती रही और पीठ पर छुरा क्यूँ घोपा ....क्यूँ लाग लपेट की बाते की ....बहुत सारे क्यूँ छिपे हैं और कलयुग की बेला चल रही है न जाने क्या हो जाये ..!.काश ....सबकुछ भ्रम ही हो शेरनी का और शेर फिर शेरनी के साथ जी सके पूरी एक खुशहाल जिन्दगी ...
क्यूँ दहकता है कोई किसी और के सूरज से भला ,
क्यूँ नहीं बनाता अपना अपना सूरज अलग से भला ,
क्यूँ छुरा लिए फिरते है दोस्त ही दोस्त की खातिर यहाँ
पीठपर क्यूँ ,नहीं भौकते उसे सीने पर करके वार भला
सच ही सुना अब ईमान बिक गया है इंसान का शायद
सोचते है अब ,कैसे बेचेंगे हम भी अपना जमीर भला . - विजयलक्ष्मी
अंत समझ नहीं आ रहा कैसे करूं इस कहानी का आप मदद करेंगे हमारी ...सतयुग आएगा या नहीं ....?
तेरी नजरों ने कुछ ऐसे छुआ था मुझको
वो अहसास ए छुअन आज भी बाकी है
वो अहसास ए छुअन आज भी बाकी है
तेरे चेहरे को जब जब देखा हमने
आईना ए दिल झलक आज भी बाकी है
आईना ए दिल झलक आज भी बाकी है
दूर रहकर भी प्यार किये जाते है तुम्हे
तुमसे जुदा होने की कसक आज भी बाकी है
तुमसे जुदा होने की कसक आज भी बाकी है
तेरा अहसास समाया है कुछ ऐसे मुझमे
दरके हुए दिल में ललक आज भी बाक़ी है
दरके हुए दिल में ललक आज भी बाक़ी है
तुम्हारी मिलने की दुआ से अनजान हूँ
आँखों में दीदार ए हसरत आज भी बाकी है-------- विजयलक्ष्मी
आँखों में दीदार ए हसरत आज भी बाकी है-------- विजयलक्ष्मी
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 26 अगस्त 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDelete