Friday 17 October 2014

" चेतो ए मानुष !"

मेरे जख्मों पर 
समय धार पर बैठी प्रकृति 
रखना चाहती है मरहम 

लेकिन मैं मानुष 
कर बर्बाद उसी को जड़ से 
देता जाता हूँ कितने गम 



ताल तलैया नदिया सागर 
जीवन देते हमे उम्रभर 
करते दूषित उनको ही हम 

काट काट कर वृक्ष 
नग्न धरा कर डाली 
फिर रोते फिरते धरती हुई गरम

पहाड़ काट समतल धरती 
कैसे सुरक्षित हो सकता है 
वृक्ष विहीन जीवन 

सारी धरती लगेगी सहरा 
नागफनी का झाड उगेगा 
मिट जायेंगे उपवन 

चेतो ए मानुष !
चंदा सूरज तारे अम्बर सब होंगे 
बस नहीं बचेगा मानुष जीवन !

------ विजयलक्ष्मी 

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